३१०] [अष्टपाहुड
अर्थः––जो ज्ञान तप रहित है और जो तप है वह भी ज्ञानरहित है तो दोनों ही अकार्य हैं, इसलिये ज्ञान – तप संयुक्त होने पर ही निर्वाणको प्राप्त करता है। भावार्थः––अन्यमती सांख्यादिक ज्ञानचर्चा तो बहुत करते हैं और कहते हैं कि––ज्ञानसे ही मुक्ति है और तप नहीं करते हैं, विषय–कषायों को प्रधानका धर्म मानकर स्वच्छन्द प्रवर्तते हैं। कई ज्ञानको निष्फल मानकर उसको यथार्थ जानते नहीं हैं और तप–क्लेशादिक से ही सिद्धि मानकर उसके करने में तत्पर रहते हैं। आचार्य कहते हैं कि ये दोनों ही अज्ञानी हैं, जो ज्ञानसहित तप करते हैं वे ज्ञानी हैं वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं, यह अनेकान्तस्वरूप जिनमतका उपदेश है।। ५९।। आगे इसी अर्थको उदाहरण से दृढ़ करते हैंः––––
णाऊण धुवं कुज्जा तवचरणं णाणजुत्तो वि।। ६०।।
ज्ञात्वाध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तः अपि।। ६०।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं–––कि देखो –––, जिसको नियम से मोक्ष होना है–– और
जो चार ज्ञान– मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इनसे युक्त है ऐसा तीर्थंकर भी तपश्चरण
करता है, इसप्रकार निश्चयसे जानकर ज्ञानयुक्त होने पर भी तप करना योग्य है। [तप–
मुनित्व, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की एकता को तप कहा है।]
भावार्थः––तीर्थंकर मति–श्रुत–अवधि इन तनि ज्ञान सहित तो जन्म लेते हैं और दीक्षा
हैं, इसलिये ऐसा जानकर ज्ञान होते हुए भी तप करने में तत्पर होना, ज्ञानमात्र ही से मुक्ति
नहीं मानना।। ६०।।
आगे जो बाह्यलिंग सहित हैं और अभ्यंतरलिंग रहित है वह स्वरूपाचरण चारित्र से