सो सगचरित्त भट्ठो मोक्खपहविपासगो साहु।। ६१।।
सः स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः।। ६१।।
अर्थः––जो जीव बाह्य लिंग – भेष सहित है और अभ्यंतर लिंग जो परद्रव्यों से सर्व
रागादिक ममत्वभाव रहित ऐसे आत्मानुभव से रहित है तो वह स्व–चारित्र अर्थात् अपने
आत्मस्वरूप के आचरण – चारित्र से भ्रष्ट है, परिकर्म अर्थात् बाह्य में नग्नता, ब्रह्मचर्यादि
शरीर संस्कार से परिवर्तनवान द्रव्यलिंगी होने पर भी वह स्व–चारित्र से भ्रष्ट होने से
मोक्षमार्गका विनाश करने वाला है। [अतः मुनि – साधुको शुद्धभावको जानकर निज शुद्ध बुद्ध
एकस्वभावी आत्मतत्त्व में नित्य भावना
६१।।
तम्हां जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए।। ६२।।
तस्मात् यथा बलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत्।। ६२।।
अर्थः––सुख से भाया हुआ ज्ञान है वह उपसर्ग–परिषहादि के द्वारा दुःख उत्पन्न होते
ही नष्ट हो जाता है, इसलिये यह उपदेश है कि जो योगी ध्यानी मुनि है वह
ते स्वकचरितथी भ्रष्ट, शिवमारगविनाशक श्रमण छे। ६१।
सुखसंग भावित ज्ञान तो दुःखकाळमां लय थाय छे,