३१२] [अष्टपाहुड तपश्चरणादि के कष्ट [दुःख] सहित आत्माको भावे। [अर्थात् बाह्य में जरा भी अनुकूल – प्रातिकूल न मानकर निज आत्मा में ही एकाग्रातारूपी भावना करे जिससे आत्मशक्ति और आत्मिकआनंद का प्रचुर संवेदन बढ़ता ही है] भावार्थः––तपश्चरणका कष्ट अंगीकार करके ज्ञानको भावे तो परीषह आने पर ज्ञानभावना से चिगे नहीं इसलिये शक्ति के अनुसार दुःख सहित ज्ञान को भाना, सुख ही में भावे तो दुःख आने पर व्याकुल हो जावे तब ज्ञानभावना न रहे, इसलिये यह उपदेश है।। ६२।। आगे कहते हैं कि आहार, आसन, निद्रा इनको जीतकर आत्मा का ध्यान करनाः–––
आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण।
झायव्यो णियअण्णा णाऊणं गुरुपसाएण।। ६३।।
झायव्यो णियअण्णा णाऊणं गुरुपसाएण।। ६३।।
आहारासन निद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन।
ध्यातव्यः निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन।। ६३।।
ध्यातव्यः निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन।। ६३।।
अर्थः––आहार, आसन, निद्रा इनको जीतकर और जिनवर के मत से तथा गुरुके
प्रसाद से जानकर निज आत्माका ध्यान करना।
भावार्थः––आहार, आसन, निद्राको जीतकर आत्माका ध्यान करना तो अन्य मतवाले
भी कहते हैं परन्तु उनके यथार्थ विधान नहीं है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि जैसे जिनमत में
कहा है उस विधान को गुरुके प्रसादसे जानकर ध्यान करना सफल है। जैसे जैन सिद्धांत में
आत्मा का स्वरूप तथा ध्यानका स्वरूप और आहार, आसन, निद्रा इनके जीतनेका विधान
कहा है वैसे जानकर इनमें प्रवर्तन करना।। ६३।।
कहा है उस विधान को गुरुके प्रसादसे जानकर ध्यान करना सफल है। जैसे जैन सिद्धांत में
आत्मा का स्वरूप तथा ध्यानका स्वरूप और आहार, आसन, निद्रा इनके जीतनेका विधान
कहा है वैसे जानकर इनमें प्रवर्तन करना।। ६३।।
आगे आत्मा का ध्यान करना; यह आत्मा कैसा है, यह कहते हैंः–––
अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा।
सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण।। ६४।।
सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण।। ६४।।
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आसन–अशन–निद्रातणो करी विजय, जिनवरमार्गथी,
ध्यातव्य छे निज आतमा, जाणी श्री गुरुपरसादथी। ६३।
छे आतमा संयुक्त दर्शन–ज्ञानथी, चारित्रथी;
ध्यातव्य छे निज आतमा, जाणी श्री गुरुपरसादथी। ६३।
छे आतमा संयुक्त दर्शन–ज्ञानथी, चारित्रथी;
नित्ये अहो! ध्यातव्य ते, जाणी श्री गुरुपरसादथी। ६४।