३१६] [अष्टपाहुड
अर्थः––जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु प्रमाण भी लेशमात्र मोहसे रति अर्थात् राग– प्रीति हो तो वह पुरुष मूढ़ है, अज्ञानी है, आत्मस्वभावसे विपरीत है। भावार्थः––भेदविज्ञान होने के बाद जीव–अजीवको भिन्न जाने तब परद्रव्य को अपना न जाने तब उससे [कर्तव्यबुद्धि स्वामित्व की भावनासे] राग भी नहीं होता है, यदि [ऐसा] हो तो जानो कि इसने स्व–परका भेद नहीं जाना है, अज्ञानी है, आत्मस्वभावसे प्रतिकूल है; और ज्ञानी होने के बाद चारित्र मोह का उदय रहता है तब तक कुछ राग रहता है उसको कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है इसलिये विरक्त ही है, अतः ज्ञानी परद्रव्यमें रागी नहीं कहलाता है, इसप्रकार जानना।। ६९।। आगे इस अर्थ को संक्षेप में कहते हैंः––––
होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्त चित्ताणं।। ७०।।
भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्त चित्तानाम्।। ७०।।
अर्थः–––पूर्वोक्त प्रकार जिनका चित्त विषयोंसे विरक्त है, जो आत्माका ध्यान करते
रहते हैं, जिनके बाह्य–अभ्यंन्तर दर्शन की शुद्धता है ओर जिनके दृढ़ चारित्र है, उनको
निश्चय से निर्वाण होता है।
भावार्थः–––पहिले कहा था कि जो विषयोंसे विरक्त हो आत्माका स्वरूप जानकर
इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर बाह्य–अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धता से दृढ़ चारित्र पालते हैं
उनको नियम से निर्वाण की प्राप्ति होती है, इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्ति सब अनर्थोंका मूल
है, इसलिये इनसे विरक्त होने पर उपयोग आत्मा में लगे तब कार्यसिद्धि होती है।। ७०।।
आगे कहते हैं कि जो परद्रव्यमें राग है वह संसारका कारण है, इसलिये योगीश्वर