Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 71-72 (Moksha Pahud).

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मोक्षपाहुड][३१७
जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं।
तेणावि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पे समायणं।। ७१।।
येन रागः परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम्।
तेनापि योगी नित्यं कुर्यात् आत्मनि स्वभावनाम्।। ७१।।

अर्थः
––जिस कारण से परद्रव्यमें राग है वह संसार ही का कारण है, उस कारण ही
से योगीश्वर मुनि नित्य आत्मा ही में भावना करते हैं।

भावार्थः––कोई ऐसी शंका करते हैं कि –––परद्रव्य में राग करने से क्या होते है?
परद्रव्य है वह पर है ही, अपने राग जिस काल हुआ उस काल है, पीछे मिट जाता है,
उसको उपदेश दिया है कि––परद्रव्य से राग करने पर परद्रव्य अपने साथ लगता है, यह
प्रसिद्ध है, और अपने राग का संस्कार दृढ़ होता है तब परलोक तक भी चला जाता है यह
तो युक्ति सिद्ध है और जिनागम में राग से कर्म का बंध कहा है, इसका उदय अन्य जन्म का
कारण है, इसप्रकार परद्रव्य में राग से संसार होता है, इसलिये योगीश्वर मुनि परद्रव्य से
राग छोड़कर आत्मा में निरन्तर भावना रखते हैं।। ७१।।

आगे कहते हैं कि ऐसे समभाव से चारित्र होता हैः––––
णिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य।
सत्तुणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो।। ७२।।
निंदायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च।
शत्रूणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः।। ७२।।
अर्थः––निन्दा–प्रशंसा में, दुःख–सुखमें ओर शत्रु–बन्धु–मित्रमें समभाव जो
समतापरिणाम, राग–द्वेष से रहितपना, ऐसे भाव से चारित्र होता है।

भावार्थः––चारित्रका स्वरूप यह कहा है कि जो आत्माका स्वभाव है वह कर्मके
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परद्रव्य प्रत्ये राग तो संसारकारण छे खरे;
तेथी श्रमण नित्ये करो निजभावना स्वात्मा विषे। ७१।

निंदा–प्रशंसाने विषे, दुःखो तथा सौख्यो विषे,
शत्रु तथा मित्रो विषे समताथी चारित होय छे। ७२।