तेणावि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पे समायणं।। ७१।।
तेनापि योगी नित्यं कुर्यात् आत्मनि स्वभावनाम्।। ७१।।
अर्थः––जिस कारण से परद्रव्यमें राग है वह संसार ही का कारण है, उस कारण ही
से योगीश्वर मुनि नित्य आत्मा ही में भावना करते हैं।
उसको उपदेश दिया है कि––परद्रव्य से राग करने पर परद्रव्य अपने साथ लगता है, यह
प्रसिद्ध है, और अपने राग का संस्कार दृढ़ होता है तब परलोक तक भी चला जाता है यह
तो युक्ति सिद्ध है और जिनागम में राग से कर्म का बंध कहा है, इसका उदय अन्य जन्म का
कारण है, इसप्रकार परद्रव्य में राग से संसार होता है, इसलिये योगीश्वर मुनि परद्रव्य से
राग छोड़कर आत्मा में निरन्तर भावना रखते हैं।। ७१।।
सत्तुणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो।। ७२।।
शत्रूणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः।। ७२।।
समतापरिणाम, राग–द्वेष से रहितपना, ऐसे भाव से चारित्र होता है।
तेथी श्रमण नित्ये करो निजभावना स्वात्मा विषे। ७१।
निंदा–प्रशंसाने विषे, दुःखो तथा सौख्यो विषे,