ही में उपयोग लगा रहे उसको शुद्धोपयोग कहते हैं, वही चारित्र है, यह होता है वहाँ निंदा–
प्रशंसा, दुःख–सुख, शत्रु–मित्र में समान बुद्धि होती है, निंदा–प्रशंसाका द्विधाभाव मोहकर्म का
उदयजन्य है, इसका अभाव ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है।।७२।।
केइ जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स।। ७३।।
केचित् जल्पंति नराः न स्फुटं कालः ध्यानयोगस्य।। ७३।।
अर्थः––कई मनुष्य ऐसे हैं जिनके चर्या अर्थात् आचार क्रिया आवृत है, चारित्र मोह
का उदय प्रबल है इससे चर्या प्रकट नहीं होती है, इसी से व्रत समिति से रहित है और
मिथ्याअभिप्राय के कारण शुद्धभाव से अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ऐसे कहते हैं कि–––अभी पंचमकाल
है, यह काल प्रकट ध्यान–योगका नहीं है।। ७३।।
ससारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स।। ७४।।
संसारसुखे सुरतः न स्फुटं कालः भणति ध्यानस्य।। ७४।।
अर्थः––पूर्वोक्त ध्यान का अभाव करने वाला जीव सम्यक्त्व और ज्ञानसे रहित है,
अभव्य है, इसीसे मोक्ष रहित है और संसारके इन्द्रिय–सुखको भले जानकर उनमें
ते कोई नर जल्पे अरे! ‘नहि ध्याननो आ काळ छे।’ ७३।
सम्यक्त्वविहीन, शिवपरिमुक्त जीव अभअ जे,