मोक्षपाहुड][३१९
आगे कहते हैं कि अभी इस पंचमकाल में धर्मध्यान होता है, यह नहीं मानता है वह
अज्ञानी हैः––––
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ते होय छे आत्मस्थने; माने न ते अज्ञानी छे। ७६।
रत है, आसक्त है, इसलिये कहते हैं कि अभी ध्यानका काल नहीं है।
भावार्थः––जिसको इन्द्रियोंके सुख ही प्रिय लगते हैं और जीवाजीव पदार्थके श्रद्धान–
ज्ञान से रहित है, वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है। इससे ज्ञात होता है
कि इसप्रकार कहने वाला अभव्य है इसको मोक्ष नहीं होगा।। ७४।।
जो ऐसा मानता है–––कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं, तो उसने पाँच महाव्रत,
पाँच समिति, तीन गुप्तिका स्वरूप भी नहीं जानाः–––
पंचसु महव्वेदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु।
जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स।। ७५।।
पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिसु।
तदात्म स्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी।। ७६।।
यः मूढः अज्ञानी न स्फुटं कालः भणिति ध्यानस्य।। ७५।।
अर्थः–––जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनमें मूढ़ है, अज्ञानी है अर्थात्
इनका स्वरूप नहीं जानता है और चारित्रमोह के तीव्र उदय से इनको पाल नहीं सकता है,
वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है।। ७५।।
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।। ७६।।
भरते दुःषमकाले धर्मध्यानं भवति साधोः।
अर्थः––इस भरतक्षेत्र में दुःषम काल – पंचमकाल में साधु मुनि के धर्मध्यान होता है
त्रण गुप्ति, पंच समिति, पंच महाव्रते जे मूढ छे,
ते मूढ अज्ञ कहे अरे! –‘नहि ध्याननो आ काळ छे।’ ७५।
भरते दुषमकालेय धर्मध्यान मुनिने होय छे;