३२०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––कोई कहते हैं कि अभी इस पंचमकाल में जिनसूत्र में मोक्ष होना कहा नहीं
इसलिये ध्यान करना तो निष्फल खेद है, उसको कहते हैं कि हे भाई! मोक्ष जाने का निषेध
किया है ओर शुक्लध्यान का निषेध किया है परन्तु धर्मध्यान का निषेध तो किया नहीं है। अभी
भी जो मुनि रत्नत्रय से शुद्ध होकर धर्मध्यानमें लीन होते हुए आत्मा का ध्यान करते हैं, वे
मुनि स्वर्ग में इन्द्रपद को प्राप्त होते हैं अथवा लोकान्तिक देव एक भवावतारी हैं, उनमें जाकर
उत्पन्न होते हैं। वहाँ से चयकर मनुष्य को मोक्षपद को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार धर्मध्यान से
परंपरा मोक्ष होता है तब सर्वथा निषेध क्यों करते हो? जो निषेध करते हैं वे अज्ञानी
मिथ्यादृष्टि हैं, उनको विष्य–कषायों में स्वच्छंद रहना है इसलिये इसप्रकार कहते हैं।। ७७।।
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वा देव लौकांतिक बने, त्यांथी च्यवी सिद्धि वरे। ७७।
यह धर्मध्यान आत्म स्वभाव में स्थित है उस मुनिके होता है, जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है
उसको धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नहीं है।
भावार्थः––जिनसूत्र में इस भरतक्षेत्र पंचमकाल में आत्मस्वभाव में स्थित मुनि के धर्मध्यान
कहा है, जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है, उसको धर्मध्यानके स्वरूपका ज्ञान नहीं है।। ७६।।
आगे कहते हैं कि जो इसकाल में रत्नत्रयका धारक मुनि होता है वह स्वर्ग लोक में
लौकान्तिकपद, इन्द्रपद प्राप्त करके वहाँ से चयकर मोक्ष जाता है, इसप्रकार जिनसूत्र में कहा हैः–
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अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहिं इंदत्तं।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति।। ७७।।
अद्य अपि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभंते इन्द्रत्वम्।
लौकान्तिक देवत्वं ततः च्युत्वा निर्वृतिं यांति।। ७७।।
अर्थः––अभी इस पंचमकाल में भी जो मुनि सम्यग्दर्शन –ज्ञान –चारित्रकी शुद्धता युक्त
होते हैं वे आत्माका ध्यान कर इन्द्रपद अथवा लौकान्तिक देवपद प्राप्त करते हैं और वहाँ से
चयकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
आगे कहते हैं कि जो इसकाल में धर्मध्यान का अभाव मानते हैं और मुनिलिंग
आजे य विमलत्रिरत्न, निजने ध्याई इन्द्रपणुं लहे,