मोक्षपाहुड][३२१
पहिले ग्रहण कर लिया, अब उसको गौण करके पापमें प्रवृत्ति करते हैं वे मोक्ष मार्ग से च्युत
हैंः–
जे पावमोहियमई लिंगं घेत्तुण जिणवरिंदाणं।
पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। ७८।।
ये पापमोहितमतयः लिंगं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम्।
पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्त्वा मोक्षमार्गे।। ७८।।
अर्थः––––जिनकी बुद्धि पापकर्म से मोहित है वे जिनवरेन्द्र तीर्थंकरका लिंग ग्रहण
करके भी पाप करते हैं, वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत हैं।
भावार्थः––जिन्होंने पहिले निर्ग्रंथ लिंग धारण कर लिया और पीछे ऐसी पाप बुद्धि
उत्पन्न हो गई कि–––अभी ध्यानका काल तो नहीं इसलिये क्यों प्रयास करे? ऐसा विचारकर
पापमें प्रवृत्ति करने लग जाते हैं वे पापी हैं, उनको मोक्षमार्ग नहीं है।। ७२।।
[ ‘इसकाल में धर्मध्यान किसी को नहीं होता’ किन्तु भद्रध्यान (–व्रत, भक्ति, दान,
पूजादिकके शुभभाव) होते हैं। इससे ही निर्जरा और परम्परा मोक्ष माना है और इसप्रकार
सातवें गुणस्थान तक भद्रध्यान और पश्चात् ही धर्मध्यान मानने वालों ने ही श्री देवसेनाचार्य
कृत ‘आराधनासार’ नाम देकर एक जालीग्रन्थ बनाया है, उसी का उत्तर केकड़ी निवासी पं०
श्री मिलापचन्दजी कटारिया ने ‘जैन निबंध रत्न माला’ पृष्ठ ४७ से ६० में दिया है कि इस
काल में धर्मध्यान गुणस्थान ४ से ७ तक आगम में कहा है। आधारः–––सूत्रजी की टीकाएँ––
–श्री राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सर्वाथसिद्धि आदि।]
आगे कहते हैं कि जो मोक्षमार्ग से च्युत हैं वे कैसे हैंः–––
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाही य जायणासीला।
आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।। ७९।।
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जे पापमोहित बुद्धिओ ग्रही जिनवरोना लिंगने
पापो करे छे, पापीओ ते मोक्षमार्गे त्यक्त छे। ७८।
जे पंचवस्त्रासक्त, परिग्रहधारी याचनशीलछे,
छे लीन आधाकर्ममां, ते मोक्षमार्गे त्यक्त छे। ७९।