अधः कर्मणि रताः ते त्यक्ताः मोक्षमार्गे।। ७९।।
परिग्रहके ग्रहण करने वाले हैं, याचनाशील अर्थात् मांगने का ही जिनका स्वभाव है और
अधःकर्म अर्थात् पापकर्म में रत हैं, सदोष आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।
अंगीकार कर लिये, परिग्रह रखने लगे, याचना करने लगे, अधःकर्म औद्देशिक आहार करने
लगे उनका निषेध है वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।पहिले तो भद्रबाहुस्वामी तक निग्रर्थं थे। पीछे
दुर्भिक्षकाल में भ्रष्ट होकर जो अर्द्धफालक कहलाने लगे उनमें से श्वेताम्बर हुए, इन्होंने इस
भेष को पुष्ट करने के लिये सूत्र बनाये, इनमें कई काल्पित आचरण तथा इसनी साधक कथायें
लिखी। इसके सिवाय अन्य भी कई भेष बदले, इसप्रकार कालदोषसे भ्रष्ट लोगोंका संप्रदाय
चल रहा है यह मोक्षमार्ग नहीं है, इसप्रकार बताया है। इसलिये इन भ्रष्ट लोगोंको देखकर
ऐसा भी मोक्षमार्ग है, ––ऐसा श्रद्धान न करना।। ७९।।
पावारंभविमुक्का ते गह्यिा मोक्खमग्गम्मि।। ८०।।
पापारंभविमुक्ताः ते गृहीताः मोक्षमार्गे।। ८०।।
से ममत्वभाव नहीं है, जो बाईस परीषहोंको सहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया
है और पापारंभ से रहित हैं, गृहस्थके करने योग्य आरंभादिक पापोंमें नहीं प्रवर्तते हैं––ऐसे
मुनियोंको मोक्षमार्ग में ग्रहण किया है अर्थात् माने हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समंतभद्राचार्यने
भी कहा है कि––