Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 81-82 (Moksha Pahud).

< Previous Page   Next Page >


Page 323 of 394
PDF/HTML Page 347 of 418

 

background image
मोक्षपाहुड][३२३
–––’विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः।ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्तते।
अर्थः––मुनि ऐसी भावना करे–––उर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक इन तीनों लोकोंमें
मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ, ऐसी भावना से योगी मुनि प्रकटरूप से शाश्वत
सुखको प्राप्त करता है।

भावार्थः––मुनि हैं वे लौकिक कष्टों और कार्योंसे रहित हैं। जैसे जिनेश्वर ने मोक्षमार्ग
बाह्य–अभ्यंतर परिग्रहसे रहित नग्न दिगम्बररूप कहा है वैसे ही प्रवर्तते हैं वे ही मोक्षमार्गी हैं
, अन्य मोक्षमार्गी नहीं हैं।। ८०।।
आगे फिर मोक्षमार्गी की प्रवृत्ति कहते हैंः–––
उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झं ण अहयमेगागी।
झाणरया सुचरिता ते गह्यिा मोक्खमग्गम्मि।। ८२।।
इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं।। ८१।।
उर्ध्वाधोमध्यलोके केचित् मम न अहकमेकाकी।
इति भावनया योगिनः प्राप्नुवंति स्फुटं शाश्वतं सौख्यम्।। ८१।।

भावार्थः––मुनि ऐसी भावना करे कि त्रिलोकमें जीव एकाकी है, इसका संबंधी दूसरा
कोई नहीं है, यह परमार्थरूप एकत्व भावना है। जिस मुनिके ऐसी भावना निरन्तर रहती है वही
मोक्षमार्गी है, जो भेष लेकर भी लौकिक जनोंसे लाल–पाल रखता है वह मोक्षमार्गी नहीं है।।
८१।।
आगे फिर कहते हैंः––––
देवगुरुणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिंता।
देवगुरुणां भक्तः निर्वेद परंपरां विचिन्तयन्तः।
ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीताः मोक्षमार्गे।। ८२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छुं एकलो हुं, कोई पण मारां नथी लोकत्रयेे,
ए भावनाथी योगीओ पामे सुशाश्वत सौख्यने। ८१।

जे देव–गुरुना भक्त छे, निर्वेदश्रेणी चिंतवे,
जे ध्यानरत, सुचरित्र छे, ते मोक्षमार्गे गृहीत छे। ८२।