मोक्षपाहुड][३२७ आवे तब दुःख मिटता है। सम्यग्दृष्टिके इसप्रकार विचार होता है कि––वस्तुका स्वरूप सर्वज्ञने जैसा जाना है वैसा निरन्तर परिणमता है वही होता है, इष्ट–अनिष्ट मानकर दुःखी–सुखी होना निष्फल है। ऐसा विचार करने से दुःख मिटता है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है, इसलिये सम्यक्त्वका ध्यान करना कहा है।। ८६।।
आगे सम्यक्त्वके ध्यान ही की महिमा कहते हैंः–––
सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो।
सम्मत्त परिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि।। ८७।।
सम्मत्त परिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि।। ८७।।
सम्यक्त्वं यः ध्यायति सम्यग्द्रष्टिः भवति सः जीवः।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्ट कर्माणि।। ८७।।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्ट कर्माणि।। ८७।।
अर्थः––जो श्रावक सम्यक्त्वका ध्यान करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है और सम्यक्त्वरूप
परिणमता हुआ दुष्ट जो आठ कर्म उनका क्षय करता है।
भावार्थः––सम्यक्त्वका ध्यान इसप्रकार है–––यदि पहिले सम्यक्त्व न हुआ हो तो भी
इसका स्वरूप जानकर इसका ध्यान करे तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है। सम्यक्त्व होने पर इसका
परिणाम ऐसा है कि संसारके कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व के होते
ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है, अनुक्रम से मुनि होने पर चारित्र और
शुक्लध्यान इसके सहकारी हो जाते हैं, तब सन कर्मोंका नाश हो जाता है।। ८७।।
आगे इसको संक्षेप से कहते हैंः–––
परिणाम ऐसा है कि संसारके कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व के होते
ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है, अनुक्रम से मुनि होने पर चारित्र और
शुक्लध्यान इसके सहकारी हो जाते हैं, तब सन कर्मोंका नाश हो जाता है।। ८७।।
आगे इसको संक्षेप से कहते हैंः–––
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले।
सिज्झिहहि जे वि भविया त्तं जाणह सम्ममाहप्पं।। ८८।।
सिज्झिहहि जे वि भविया त्तं जाणह सम्ममाहप्पं।। ८८।।
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सम्यक्त्वने जे जीव ध्यावे ते सुद्रष्टि होय छे,
सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्टकर्मो क्षय करे। ८७।
बहु कथनथी शुं? नरवरो गत काळ जे सिद्धया अहो!
सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्टकर्मो क्षय करे। ८७।
बहु कथनथी शुं? नरवरो गत काळ जे सिद्धया अहो!
जे सिद्धशे भव्यो हवे, सम्यक्त्वमहिमा जाणवो। ८८।