जैसा जाना है वैसा निरन्तर परिणमता है वही होता है, इष्ट–अनिष्ट मानकर दुःखी–सुखी
होना निष्फल है। ऐसा विचार करने से दुःख मिटता है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है, इसलिये
सम्यक्त्वका ध्यान करना कहा है।। ८६।।
सम्मत्त परिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि।। ८७।।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्ट कर्माणि।। ८७।।
अर्थः––जो श्रावक सम्यक्त्वका ध्यान करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है और सम्यक्त्वरूप
परिणमता हुआ दुष्ट जो आठ कर्म उनका क्षय करता है।
परिणाम ऐसा है कि संसारके कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व के होते
ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है, अनुक्रम से मुनि होने पर चारित्र और
शुक्लध्यान इसके सहकारी हो जाते हैं, तब सन कर्मोंका नाश हो जाता है।। ८७।।
सिज्झिहहि जे वि भविया त्तं जाणह सम्ममाहप्पं।। ८८।।
सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्टकर्मो क्षय करे। ८७।
बहु कथनथी शुं? नरवरो गत काळ जे सिद्धया अहो!