सेत्स्यंति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम्।। ८८।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि–––बहुत कहने से क्या साध्य है, जो नरप्रधान अतीत
कालमें सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्वका महात्म्य जानो।
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या? यह संक्षेप से कहा जानो कि–––मुक्ति का प्रधान
कारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत जानो कि गृहस्थके क्या धर्म है, यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा
है कि सब धर्मों के अंगों को सफल करता है।। ८८।।
सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।। ८९।।
सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि न मलिनितं यैः।। ८९।।
अर्थः––जिन पुरुषों ने मुक्तिको करनेवाले सम्यक्त्व को स्वप्न अवस्था में भी मलिन
नहीं किया, अतीचार नहीं लगाया उन पुरुषोंको धन्य है, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ
हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित हैं।
पढ़े उसको पंडित कहते हैं। ये सब कहनेके हैं; जो मोक्ष के कारण सम्यक्त्वको मलिन नहीं
करते हैं, निरतिचार पालते हैं उनको धन्य है, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित
हैं, वे ही मनुष्य हैं, इसके बिना मनुष्य पशु समान है, इस प्रकार सम्यक्त्वका माहात्म्य कहा।।