मोक्षपाहुड][३३१ इसको राजादिक मानते हैं, हम नहीं मानेंगे तो हमारे ऊपर कुछ उपद्रव आ जायगा, इसप्रकार भय से वंदना व पूजा करे। गारव ऐसे कि हम बडे़ हैं, महंत पुरुष हैं, सबही का सन्मान करते हैं, इन कार्यों से कमारी बड़ाई है, इस प्रकार गारव से वंदना व पूजना होता है। इसप्रकार मिथ्यादृष्टि के चिन्ह कहे हैं।। ९२।। आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं किः–––
सपरावेक्खं लिंगं राई देवं असंजयं वंदे।
मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो।। ९३।।
मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो।। ९३।।
स्वपरापेक्षं लिंगं रागिणं देवं असंयतं वन्दे।
मानयति मिथ्याद्रष्टिः न स्फुटं मानयति सुद्ध सम्यक्ती।। ९३।।
मानयति मिथ्याद्रष्टिः न स्फुटं मानयति सुद्ध सम्यक्ती।। ९३।।
अर्थः––स्वपरापेक्ष तो लिंग–आप कुछ लौकिक प्रयोजन मनमें धारणकर भेष ले वह
स्वापेक्ष और किसी परकी अपेक्षा से धारण करे, किसी के आग्रह तथा राजादिकके भयसे धारण
करे वह परापेक्ष है। रागी देव (जिसके स्त्री आदिका राग पाया जाता है) और संयमरहित को
इसप्रकार कहे कि मैं वंदना करता हूँ तथा इनको माने, श्रद्धान करे वह मिध्यादृष्टि है। शुद्ध
सम्यक्त्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पूजन ही करता है।
सम्यक्त्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पूजन ही करता है।
भावार्थः––ये ऊपर कहे इनसे मिथ्यादृष्टिके प्रीति भक्ति उत्पन्न होती है, जो निरतिचार सम्यक्त्ववान् है वह इनको नहीं मानता।। ९३।।
सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि।
विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो।। ९४।।
विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो।। ९४।।
सम्यग्द्रष्टिः श्रावकः धर्मं जिनदेव देशितं करोति।
विपरीतं कुर्वन् मिथ्याद्रष्टिः ज्ञातव्यः।। ९४।।
विपरीतं कुर्वन् मिथ्याद्रष्टिः ज्ञातव्यः।। ९४।।
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वंदन असंयत, रक्त देवो, लिंग सपरापेक्षने,
ए मान्य होय कुद्रष्टिने, नहि शुद्ध सम्यग्द्रष्टिने।९३।
सम्यक्त्वयुत श्रावक करे जिनदेवदेशित धर्मने;
ए मान्य होय कुद्रष्टिने, नहि शुद्ध सम्यग्द्रष्टिने।९३।
सम्यक्त्वयुत श्रावक करे जिनदेवदेशित धर्मने;
विपरीत तेथी जे करे, कुद्रष्टि ते ज्ञातअ छे। ९४।