कि–––ऐसा निर्ग्रंथ रूप भी जो किसी अन्य आशय से धारण करे तो वह भेष मोक्षमार्ग नहीं
है, केवल मोक्ष ही की अपेक्षा जिसमें हो ऐसा हो उसको माने वह सम्यग्दृष्टि है ऐसा
जानना।। ९१।।
दोषोंसे सहित हो वह कुत्सित धर्म है, जो परिग्रहादि सहित हो वह कुत्सित लिंग है। जो
इनकी वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट मिथ्यादृष्टि है। यहाँ अब विशेष कहते हैं
कि जो इनको भले–हित करने वाले मानकर वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट
मिथ्यादृष्टि है। परन्तु जो लज्जा, भय, गारण इन कारणोंसे भी वंदना करता है, पूजा करता
है वह भी प्रगट मिथ्यादृष्टि है। लज्जा तो ऐसे कि––लोग इनकी वंदना करते हैं, हम नहीं
पूजेंगे तो लोग हमको क्या कहेंगे? हमारी इस लोक में प्रतिष्ठा चली जायेगी, इसप्रकार
लज्जा से वंदना व पूजा करे। भय ऐसे कि–––
लिंगं न परापेक्षं यः मन्यते तस्य सम्यक्त्वम्।। ९१।।
अर्थः––मोक्षमार्ग का लिंग भेष ऐसा है कि यथाजातरूप तो जिसका रूप है, जिसमें
बाह्य परिग्रह वस्त्रादिक किंचित्मात्र भी नहीं है, सुसंयत अर्थात् सम्यक्प्रकार इन्द्रियों का निग्रह
और जीवोंकी दया जिसमें पाई जाती है ऐसा संयम है, सर्व संग अर्थात् सबही परिग्रह तथा
सब लौकिक जनोंकी संगति से रहित है और जिसमें परकी अपेक्षा कुछ नहीं है, मोक्षके
प्रयोजन सिवाय अन्य प्रयोजनकी अपेक्षा नहीं है। ऐसा मोक्षमार्ग का लिंग माने–श्रद्धान करे उस
जीवके सम्यक्त्व होता है।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।। ९२।।
लज्जाभयगारवतः मिथ्याद्रष्टिः भवेत् सः स्फुटम्।। ९२।।