होता है तब आत्मा की भावना होती है तब अविरत नाम चौथा गुणस्थान होता है। जब
एकदेश परद्रव्य से निवृत्ति का परिणाम होता है तब जो एकदेश चारित्ररूप पाँचवाँ गुणस्थान
होता है उसको श्रावक पद कहते हैं। सर्वदेश परद्रव्य से निवृत्तिरूप परिणाम हो तब
सकलचारित्ररूप छट्ठा गुणस्थान होता है, इसमें कुछ संज्वलन चारित्रमोह के तीव्र उदय से
स्वरूप के साधन में प्रमाद होता है, इसलिये इसका नाम प्रमत्त है, यहाँ से लगाकर ऊपरके
गुणस्थान वालों को साधु कहते हैं।
अन्यथा उपचार भी नहीं।]
धर्मध्यान की पूर्णता है। जब इस गुणस्थान में स्वरूप में लीन हो तब सातिशय अप्रमत्त होता
है। श्रेणी का प्रारम्भ करता है, तब इससे ऊपर चारित्रमोहका अव्यक्त उदयरूप अपूर्वकरण,
अनिवृत्त्किरण, सूक्ष्मसांपराय नाम धारक ये तीन गुणस्थान होते हैं। चौथे से लगाकर दसवें
सूक्ष्मसांपराय तक कर्म की निर्जरा विशेषरूप से गुणश्रेणीरूप होती है।
अरहंत होता है यह संयोगी जिन नाम गुणस्थान है, यहाँ योग की प्रवृत्ति है। योगोंका
निरोधकर अयोगी जिन नामका चौदहवाँ गुणस्थान होता है, यहाँ अघातिया कर्मों का भी नाश
करके लगता ही अनंतर समयमें निर्वाण पद को प्राप्त होता है, यहाँ संसार के अभावसे मोक्ष
नाम पाता है।
लगाकर आगे जैसे जैसे कर्मका अभाव होता है वैसे वैसे सम्यग्दर्शन