Ashtprabhrut (Hindi).

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३४२] [अष्टपाहुड आदि की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है, जब घाति कर्मका अभाव होता है तब तेरहवें गुणस्थान में अरहंत होकर जीवन मुक्त कहलाते हैं ओर चौदहवें गुणस्थान के अंत में रत्नत्रय की पूर्णता होती है, इसलिये अघाति कर्मका भी नाश होकर अभाव होता है तब साक्षात मो सिद्ध कहलाते हैं। इसप्रकार मोक्षका ओर मोक्षके कारण स्वरूप जिन–आगम से जानकर और सम्यगदर्शन – ज्ञान– चारित्र मोक्ष के कारण कहे हैं इनको निश्चय–व्यवहाररूप यथार्थ जानकर सेवन करना। तप भी मोक्षका कारण है उसे भी चारित्र में अंतर्भूत कर त्रयात्मक ही कहा है। इसप्रकार इन कारणोंसे प्रथम तो तद्भव ही मोक्ष होता है। जबतक कारणकी पूर्णता नहीं होती है उससे पहिले कदाचित् आयुकर्म की पूर्णता हो जाय तो स्वर्ग में देव होता है, वहाँ भी यह वांछा रहती है यह शुभोपयोग का अपराध है, यहाँ से चय कर मनुष्य होऊँगा तब सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग का सेवन कर मोक्ष प्राप्त करूँगा, ऐसी भावना रहती है तब वहाँ से चय के मोक्ष पाता है। [ पुरुषार्थ सिद्धि – उपाय श्लोक नं० २२० ‘रत्नत्रयरूप धर्म है वह निर्वाणका ही कारण है और उस समय पुण्यका आस्रव होता है वह अपराध शुभोपयोगका कारण है।’]

अभी इस पंवम काल में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी सामग्री का निमित्त नहीं है इसलिये तद्भव मोक्ष नहीं है, तो भी जो रत्नळय का शुद्धतापूर्वक पालन करे तो यहाँ से देव पर्याय पाकर पीछे मनुष्य होकर मोक्ष पाता है। इसलिये यह उपदेश है – जैसे बने वैसे रत्नत्रयकी प्राप्ति उपाय करना, इसमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है इसका उपाय तो अवश्य चाहिये इसलिये जिनागम को समझकर सम्यक्त्वका उपाय करना योग्य है, इसप्रकार इस ग्रंथका संक्षेप जानो।

छप्पन
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवकरण जानूं,
ते निश्चय अवहाररूप नीकैं लखि मानूं।
सेवो निशदिन भक्तिभाव धरि निजबल सारू,
जिन आज्ञा सिर धारि अन्यमत तजि अधकारू।।

ईस मानुषभवकूं पायकै अन्य चारित मति धरो,
भविजीवनिकूं उपदेश यह गहिकरि शिवपद संचरो।। १।।