पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हतिकार।। २।।
नमस्कार है वह पंचपरमेष्ठी की प्रधानता हुई, पंचपरमेष्ठी को परम गुरु कहे इसमें इसी मंत्र
की महिमा तथा मंगलरूपपना और इससे विध्न का निवारण, पंच–परमेष्ठी के प्रधानपना और
गुरुपना तथा नमस्कार करने योग्यपना कैसे है? वह कहो।
आम्नाय से शुद्ध उच्चारण हो तथा साधन यथार्थ हो तब ये अक्षर कार्य में विध्न के दूर करने
में कारण हैं इसलिये मंगलरूप हैं। ‘म’ अर्थात् पाप को गाले उसे मंगल कहते हैं तथा ‘मंग’
अर्थात् सुख को लावे, दे, उसको मंगल कहते हैं, इससे दोनों कार्य होते हैं। उच्चारण के
विध्न टलते हैं, अर्थ का विचार करने पर सुख होता है, इसी से इसको मंत्रों में प्रधान कहा
है, इसप्रकार तो मंत्र के आश्रय महिमा है।
अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञ की परम्परा से आगम में कहा है ऐसा षद्द्रव्य स्वरूप लोक है,
जिसमें जीवद्रव्य अनंतानंत हैं और पुद्गल द्रव्य इसके अनंतानंत गुणे हैं, एक–एक धर्मद्रव्य,
अधर्मद्रव्य हैं और कालद्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। जीव तो दर्शन–ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है।
अजीव पाँच हैं ये चेतना रहित जड़ हैं––धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो जैसे
हैं वैसे ही रहते हैं, इनके विकार परिणति नहीं है, जीव पुद्गल द्रव्य के परस्पर निमित्त –
नैमित्तिकभाव से विभाव परिणति है, इसमें भी पुद्गल तो जड़ है, इसके विभाव परणिति का
दुःख–सुख का वेदन नहीं है और जीव चेतन है इसके दुःख – सुख का वेदन है।
निवृत्त कभी नहीं होते हैं, इसके संसार अनादि निधन है।