इनके संसार की उत्पत्ति कैसे है वह कहते हैंः–––
निमित्त से नवीन कर्मबंध होता है, इसप्रकार इनके संतान परम्परा से जीव के चतुर्गतिरूप
संसार की प्रवृत्ति होती है, इस संसार में चारों गतियोंमें अनेक प्रकार सुख–दुःखरूप भ्रमण
हुआ करता है; तब कोई काल ऐसा आवे जब मुक्त होना निकट हो तब सर्वज्ञ के उपदेश का
निमित्त पाकर अपने स्वरूप को और कर्मबंधके स्वरूप को, अपने भीतरी विभाव के स्वरूप को
जाने इनका भेदविज्ञान हो, तब परद्रव्य को संसार का निमित्त जानकर इससे विरक्त हो,
अपने स्वरूप के अनुभव का साधन करे––दर्शन–ज्ञानरूप स्वभाव में स्थिर होने का साधन
करे तब इसके बाह्य साधन हिंसादिक पंच पापों का त्यागरूप निर्ग्रंथ पद, ––सब परिग्रह की
त्यागरूप निर्ग्रंथ दिगम्बर मुद्रा धारण करे, पाँच महाव्रत, पाँच समितिरूप, तीन गुप्तिरूप प्रवर्ते
तब सब जीवों पर दया करनेवाला साधु कहलाता है।
अपने स्वरूपके साधन में रहे वह साधु कहलाता है, जो साधु होकर अपने स्वरूप के साधन
के ध्यानके बलसे चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख ओर
अनन्तवीर्य को प्राप्त हो वह अरहंत कहलाता है, तब तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली––जिन
इन्द्रादिकसे पूज्य होता है, इनकी वाणी खिरती है, जिससे सब जीवों का उपकार होता है,
अहिंसा धर्म का उपदेश होता है, सब जीवों की रक्षा कराते हैं यथार्थ पदार्थों का स्वरूप
बताकर मोक्षमार्ग दिखाते हैं, इसप्रकार अरहंत पद होता है और जो चार अघातिया कर्मों का
भी नाशकर सब कर्मों से रहित हो जातें हैं वह सिद्ध कहलाते हैं।
परिणाम होते हैं इसलिये पाप का नाश होता है, वर्तमान विध्नका विलय होता है आगामी पुण्य
का बंध होता है, इसलिये स्वर्गादिक शुभगति पाता है।