Ashtprabhrut (Hindi).

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३४६] [अष्टपाहुड
कुछ अज्ञानतप किया है उसका फल है, यह तो पुण्यपापरूप संसार की चेष्टा है, इसमें कुछ
बड़ाई नहीं है, बड़ाई तो वह है जिससे संसार का भ्रमण मिटे सो यह तो वीतराग विज्ञान
भावोंसे ही मिटेगा, इस वीतरागविज्ञान भावयुक्त पँच परमेष्ठी हैं ये ही संसारभ्रमण का दुःख
मिटाने में कारण हैं।

वर्तमान में कुछ पूर्व शुभकर्म के उदय से पुण्यका चमत्कार देखकर तथा पापका दुःख
देखकर भ्रममें नहीं पड़ना, पुण्य पाप दोनों संसार हैं इनसे रहित मोक्ष है, अतः संसार से
छूटकर मोक्ष हो ऐसा उपाय करना। वर्तमानका भी विध्न जैसा पँच परमेष्ठी के नाम, मंत्र,
ध्यान, दर्शन, स्मरण से मिटेगा वैसा अन्यके नामादिक से तो नहीं मिटेगा, क्योंकि ये
पँचपरमेष्ठी ही शांतिरूप हैं, केवल शुभ परणिामों ही के कारण हैं। अन्य इष्ट के रूप तो
रौद्ररूप हैं, इनके दर्शन स्मरण तो रागादिक तथा भयादिकके कारण हैं, इनसे तो शुभ
परिणाम होते दिखते नहीं हैं। किसी के कदाचित् कुछ धर्मानुराग के वश से शुभ परिणाम हों
तो वह उनसे हुआ नहीं कहलाता, उस प्राणी के स्वाभाविक धर्मानुराग के वश से होता है।
इसलिये अतिशयवान शुभ परिणाम का कारण तो शांतिरूप पँच परमेष्ठी ही का रूप है, अतः
इसी का आराधन करना, वद्यथा खोटी युक्ति सुनकर भ्रममें नहीं पड़ना, ऐसे जानना।
इति श्री कुन्दकुन्दस्वामी विरचित मोक्षप्राभृत की
जयपुरनिवासी पं० जयचन्द्रजी छाबड़ा कृत देशभाषामय वचनिकाका
हिन्दी भाषानयवाद समाप्त ।। ६।।