Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 3-4 (Ling Pahud).

< Previous Page   Next Page >


Page 349 of 394
PDF/HTML Page 373 of 418

 

background image
लिंगपाहुड][३४९
आगे लिंग धारण करके कुक्रिया करे उसको प्रगट करते हैंः–––
जो पावमोहिदमही लिंगं द्येत्तूण जिणवरिंदाणं।
उवहसदि लिंगिभावं लिंगिम्मिय णारदो लिंगी।। ३।।
यः पापमोहितमतिः लिंगं गृहीत्वा जिनेवरन्द्राणाम्।
उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु नारदः लिंगी।। ३।।

अर्थः
––जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देवके लिंग नग्न दिगम्बररूप को ग्रहण करके
लिंगीपने के भाव को उपहासता है––हास्यमात्र समझाता है वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी
बुद्धि पापसे मोहित है वह नारद जैसा है अथवा इस गाथा के चौथे पादका पाठान्तर ऐसा है–
–‘लिंगं णासेदि लिंगीणं’ इसका अर्थ––यह लिंगी अन्य जो कोई लिंगोंके धारक हैं उनके
लिंग को भी नष्ट करता है, ऐसा बताता है कि लिंगी सब ऐसे ही होते हैं।
भावार्थः––लिंगधारी होकर भी पापबद्धि से कुछ कुक्रिया करे तब उसने लिंगपने को
हास्यमात्र समझा, कुछ कार्यकारी नहीं समझा। लिंगीपना तो भावशुद्धि से शोभा पाता है, जब
भाव बिगड़े तब बाह्य कुक्रिया करने लग गया तब इसने इस लिंग को लजाया और अन्य
लिंगियों के लिंग को भी कलंक लगाया, लोग कहने लगे कि लिंगी ऐसे ही होते हैं अथवा
जैसे नारदका भेष है उसमें वह अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद प्रवर्तता है, वैसे ही यह भी भेषी
ठहरा, इसलिये आचार्य ने ऐसा आशय धारण करके कहा है कि जिनेन्द्र के भेष को लजाना
योग्य नहीं है।। ३।।
णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरुवेण।
सो पावमोहिद मदी तिरिक्ख जोणी ण सो समणो।। ४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तर– ‘लिंगिम्मिय णारदो लिंगी’ के स्थान पर ‘लिंगं णासेदि लिंगीणं’।
जे पाप मोहित बुद्धि, जिनवरलिंग धरी, लिंगित्वने
उपर्हासत करतो, ते विघाते लिंगीओना लिंगने। ३।

जे लिंग धारी नृत्य, गायन, वाद्यवादनने करे,
ते पापमोहित बुद्धि छे तिर्यंग्योनि, न श्रमण छे। ४।