उवहसदि लिंगिभावं लिंगिम्मिय णारदो लिंगी।। ३।।
उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु नारदः लिंगी।। ३।।
अर्थः––जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देवके लिंग नग्न दिगम्बररूप को ग्रहण करके
लिंगीपने के भाव को उपहासता है––हास्यमात्र समझाता है वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी
बुद्धि पापसे मोहित है वह नारद जैसा है अथवा इस गाथा के चौथे पादका पाठान्तर ऐसा है–
–‘लिंगं णासेदि लिंगीणं’ इसका अर्थ––यह लिंगी अन्य जो कोई लिंगोंके धारक हैं उनके
लिंग को भी नष्ट करता है, ऐसा बताता है कि लिंगी सब ऐसे ही होते हैं।
भाव बिगड़े तब बाह्य कुक्रिया करने लग गया तब इसने इस लिंग को लजाया और अन्य
लिंगियों के लिंग को भी कलंक लगाया, लोग कहने लगे कि लिंगी ऐसे ही होते हैं अथवा
जैसे नारदका भेष है उसमें वह अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद प्रवर्तता है, वैसे ही यह भी भेषी
ठहरा, इसलिये आचार्य ने ऐसा आशय धारण करके कहा है कि जिनेन्द्र के भेष को लजाना
योग्य नहीं है।। ३।।
सो पावमोहिद मदी तिरिक्ख जोणी ण सो समणो।। ४।।
उपर्हासत करतो, ते विघाते लिंगीओना लिंगने। ३।
जे लिंग धारी नृत्य, गायन, वाद्यवादनने करे,