Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 2 (Ling Pahud).

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३४८] [अष्टपाहुड
भावार्थः––इस काल में मुनिका लिंग जैसा जिनदेव ने कहा है उसमें विपर्यय हो गया,
उसका निषेध करने के लिये लिंगनिरूपण शास्त्र आचार्य ने रचा है, इसकी आदि में घातिकर्म
का नाशकर अनंतचतुष्टय प्राप्त करके अरहंत हुए, इन्होंने यथार्थरूप से श्रमण का मार्ग
प्रवर्ताया और उस लिंग को साधकर सिद्ध हुए, इसप्रकार अरहंत सिद्धों को नमस्कार करने
की प्रतिज्ञा की है।। १।।

आगे कहते हैं कि जो लिंग बाह्यभेष है वह अंतरंग धर्म सहित कार्यकारी हैः–––
धम्मेण होइ लिंगं लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती।
जाणेहि भाव धम्मं किं ते लिंगण कायव्वो।। २।।
धर्मेण भवति लिंगं न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः।
जानीहि भावधर्मं किं ते लिंगेन कर्तव्यम्।। २।।

अर्थः
––धर्म सहित तो लिंग होता है परन्तु लिंगमात्र ही धर्म की प्राप्ति नहीं है,
इसलिये हे भव्यजीव! तू भावरूप धर्म को जान और केवल लिंग ही से तेरा क्या कार्य होता है
अर्थात् कुछ भी नहीं होता है।

भावार्थः––यहाँ ऐसा जानो कि ––लिंग ऐसा चिन्ह का नाम है, वह बाह्य भेष धारण
करना मुनि का चिन्ह है, ऐसा यदि अंतरंग वीतराग स्वरूप धर्म हो तो उस सहित तो यह
चिन्ह सत्यार्थ होता है और इस वीतरागस्वरूप आत्मा के धर्म के बिना लिंग जो बाह्य भेषमात्र
से धर्म की संपत्ति–सम्यक् प्राप्ति नहीं है, इसलिये उपदेश दिया है कि अंतरंग भावधर्म राग–
द्वेष रहित आत्मा का शुद्ध ज्ञान–दर्शनरूप स्वभाव धर्म है उसे हे भव्य! तू जान, इस बाह्य
लिंग भेष मात्र से क्या काम? कुछ भी नहीं। यहाँ ऐसा भी जानना लि जिनमत में लिंग तीन
कहे हैं––एक तो मुनिका यथाजात दिगम्बर लिंग १, दूजा उत्कृष्ट श्रावक का २, तीजा
आर्यिका का ३, इन तीनों ही लिंगों को धारण कर भ्रष्ट हो जो कुक्रिया करते हैं इसका निषेध
है। अन्यमत के कई भेष हैं इनको भी धारण करके जो कुक्रिया करते हैं वह भी निंदा पाते हैं,
इसलिये भेष धारण करके कुक्रिया नहीं करना ऐसा बताया है।। २।।

आगे कहते हैं कि जो जिनलिंग निर्ग्रंथ दिगम्बररूप को ग्रहण कर कुक्रिया करके हँसी
कराते हैं वे जीव पापबुद्धि हैंः–––
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होये धरमथी लिंग, धर्म न लिंगमात्रथी होय छे;
रे! भावधर्म तुं जाण, तारे लिंगथी शुं कार्य छे? २।