लिंगपाहुड][३५१
कलहं वादं द्यूतं नित्यं बहुमानगर्वितः लिंगी।
व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरुपेण।। ६।।
व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरुपेण।। ६।।
अर्थः––जो लिंगी बहुत मान कषायसे गर्वमान हुआ निरंतर कलह करता है, वाद करता
है, द्यूतक्रीड़ा करता है वह पापी नरकको प्राप्त होता है और पापसे ऐसे ही करता रहता है।
भावार्थः––जो गृहस्थरूप करके ऐसी क्रिया करता है उसको तो यह उलाहना नहीं है,
क्योंकि कदाचित् गृहस्थ तो उपदेशादिकका निमित्त पाकर कुक्रिया करता रह जाय तो नरक न
जावे, परन्तु लिंग धारण करके उसरूप से कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं
लगता है, इससे नरक का ही पात्र होता है।। ६।।
आगे फिर कहते हैः–––
जावे, परन्तु लिंग धारण करके उसरूप से कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं
लगता है, इससे नरक का ही पात्र होता है।। ६।।
आगे फिर कहते हैः–––
पाओ पहदंभावो सेवदि य अबंभु लिंगिरुवेण।
सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकंतारे।। ७।।
सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकंतारे।। ७।।
पापोपहतभावः सेवते च अब्रह्म लिंगिरुपेण।
सः पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे।। ७।।
सः पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे।। ७।।
अर्थः––पाप से उपहत अर्थात् घात किया गया है आत्मभाव जिसका ऐसा होता हुआ
जो लिंगी का रूप करके अब्रह्मका सेवन करता है वह पाप से मोहित बुद्धिवाला लिंगी
संसाररूपी कांतार–––वन में भ्रमण करता है।
भावार्थः–– पहिले तो लिंग धारण किया और पीछे ऐसा पाप–परिणाम हुआ कि
व्यभिचार सेवन करने लगा, उसकी पाप–बुद्धि का क्या कहना? उसका संसार में भ्रमण क्यों
न हो? जिसके अमृत भी जहररूप परिणमे उनके रोग जाने की क्या आशा? वैसे ही यह
हुआ, ऐसे का संसार कटना कठिन है।। ७।।
आगे फिर कहते हैंः–––
न हो? जिसके अमृत भी जहररूप परिणमे उनके रोग जाने की क्या आशा? वैसे ही यह
हुआ, ऐसे का संसार कटना कठिन है।। ७।।
आगे फिर कहते हैंः–––
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जे पाप–उपहतभाव सेवे लिंगमां अब्रह्मने,
ते पापमोहित बुद्धिने परिभ्रमण संसृतिकानने। ७।