लगा तब अनंत संसारी क्यों न हो? इसका तात्पर्य है कि–––सम्यग्दर्शनादि रूप भाव तो
पहिले हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लिंग धारण कर लिया, उसकी अवधि क्या? पहिले
भाव शुद्ध करके लिंग धारण करना युक्त है।। ८।।
अट्टं झायदि झाणं अणंत संसारिओ होदि।। ८।।
आर्त्तं ध्यायाति ध्यानं अनंतसंसारिकः भवति।। ८।।
अर्थः––यदि लिंगरूप करके दर्शन ज्ञान चारित्र को तो उपधानरूप नहीं किये [–धारण
नहीं किये] और आर्त्तध्यान को ध्याता है तो ऐसा लिंगी अनंत संसारी होता है।
वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरुवेण।। ९।।
व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरुपेण।। ९।।
बहाना किसान का कार्य, वाणिज्य व्यापार अर्थात् वैश्यका कार्य और जीवघात अर्थात् वैद्यकर्म
के लिये जीवघात करना अथवा धीवरादिका कार्य, इन कार्यों को करता है वह लिंगरूप धारण
करके ऐसे पापकार्य करता हुआ पापी नरकको प्राप्त होता है।
ने ध्यान ध्यावे आर्त, तेह अनंत संसारी मुनि। ८।
जोडे विवाह, करे कृषि–व्यापार–जीवविघात जे,