दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १७।।
दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यगयोनिः न सः श्रमणः।। १७।।
अर्थः––जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह के प्रति तो निरंतर राग–प्रीति करता है
और पर जो कोई अन्य निर्दोष हैं उनको दोष लगाता है वह दर्शन–ज्ञानरहित है, ऐसा लिंगी
तिर्यंचयोनि है, पशु समान है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है।
अन्यके दोष लगाकर द्वेष करता है, व्यभिचारी का सा स्वभाव है, तो उसके कैसा दर्शन–
ज्ञान? और कैसा चारित्र? लिंग धारण करके लिंग के योग्य आचरण करना था वह नहीं
किया तब अज्ञानी पशु समान ही है, श्रमण कहलाता है वह आप भी मिथ्यादृष्टि है अन्य को
भी मिथ्यादृष्टि करनेवाला है, ऐसे का प्रसंग भी युक्त नहीं है।।१७।।
आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १८।।
आचारविनयहीनः तिर्यंगयोनिः न सः श्रमणः।। १८।।
अर्थः–– जो लिंगी ‘प्रवज्या–हीन’ अर्थात् दीक्षा–रहित गृहस्थों पर और शिष्यों पर
बहुर स्नेह रखता है और आचार अर्थात् मुनियों की क्रिया और गुरुओं के विनय से रहित
होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है।
दगज्ञानथी जे शून्य, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे। १७।