पार्श्वस्थादपि स्फुटं विनष्टः भावविनष्टः न सः श्रमणः।। २०।।
अर्थः––जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह में उनका विश्वास करके ओर उनको
विश्वास उत्पन्न कराके दर्शन–ज्ञान–चारित्र को देता है उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना–
पढ़ाना, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है, इसप्रकार विश्वास उत्पन्न करके
उनमें प्रवर्तता है वह ऐसा लिंगी तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, प्रगट भावसे विनष्ट है, श्रमण
नहीं हैं।
मुनि को कहते हैं उससे भी वह निकृष्ट है, ऐसेको साधु नहीं कहते हैं।। २०।।
पावदि बालसहावं भावविणट्ठो ण सो समणो।। २१।।
प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्टः न सः श्रमणः।। २१।।
करता है और नित्य उसकी स्तुति करता है कि यह––बड़ी धर्मात्मा है, इसके साधुओं की
बड़ी भक्ति है, इसप्रकार से नित्य उसकी प्रशंसा करता है इसप्रकार पिंडको [शरीरको]
पालता है वह ऐसा लिंगी बालस्वभाव को प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव से विनष्ट है, वह
श्रमण नहीं है।
लज्जा भी नहीं आती है, इसप्रकार वह भावसे विनष्ट है, मुनित्वके भाव नहीं हैं, तब मुनि
कैसे?