Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 21 (Ling Pahud).

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३६०] [अष्टपाहुड
दर्शनज्ञान चारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः।
पार्श्वस्थादपि स्फुटं विनष्टः भावविनष्टः न सः श्रमणः।। २०।।

अर्थः
––जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह में उनका विश्वास करके ओर उनको
विश्वास उत्पन्न कराके दर्शन–ज्ञान–चारित्र को देता है उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना–
पढ़ाना, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है, इसप्रकार विश्वास उत्पन्न करके
उनमें प्रवर्तता है वह ऐसा लिंगी तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, प्रगट भावसे विनष्ट है, श्रमण
नहीं हैं।
भावार्थः–––जो लिंग धारण करके स्त्रियों को विश्वास उत्पन्न कराकर उनसे निरंतर
पढ़ना, पढ़ाना, लालापाल रखना, उसको जानो कि इसका भाव खोटा है। पार्श्वस्थ तो भ्रष्ट
मुनि को कहते हैं उससे भी वह निकृष्ट है, ऐसेको साधु नहीं कहते हैं।। २०।।
आगे फिर कहते हैंः–––
पुंच्छलिघरि जो भुञ्जइ णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं।
पावदि बालसहावं भावविणट्ठो ण सो समणो।। २१।।
पुंश्चली गृहे यः भुंक्ते नित्यं संस्तौति पुष्णाति पिंडं।
प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्टः न सः श्रमणः।। २१।।
अर्थः––जो लिंगधारी पुंश्चली अर्थात् व्यभिचारिणी स्त्री के धर भोजन लेता है, आहार
करता है और नित्य उसकी स्तुति करता है कि यह––बड़ी धर्मात्मा है, इसके साधुओं की
बड़ी भक्ति है, इसप्रकार से नित्य उसकी प्रशंसा करता है इसप्रकार पिंडको [शरीरको]
पालता है वह ऐसा लिंगी बालस्वभाव को प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव से विनष्ट है, वह
श्रमण नहीं है।

भावार्थः––जो लिंग धारण करके व्यभिचारिणी का आहर खाकर पिंड पालता है,
उसकी नित्य प्रशंसा करता है, तब जानो कि–––यह भी व्यभिचारी है, अज्ञानी है, उसको
लज्जा भी नहीं आती है, इसप्रकार वह भावसे विनष्ट है, मुनित्वके भाव नहीं हैं, तब मुनि
कैसे?
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असतीगृहे भोजन, करे स्तुति नित्य, पोषे पिंड जे,
अज्ञानभावे युक्त भावविनष्ट छे, नहि श्रमण छे। २१।