लिंगपाहुड][३६१
आगे इस लिंगपाहुड को सम्पूर्ण करते हैं और कहते हैं कि जो धर्मका यथार्थ स्वरूप से पालन करता है वह उत्तम सुख पाता हैः––––
पालेइ कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तम ठाणं।। २२।।
पालयति कष्टसहितं सः गाहते उत्तम स्थानम्।। २२।।
अर्थः––इसप्रकार इस लिंगपाहुड शास्त्र का सर्वबुद्ध जो ज्ञानी गणधरादि उन्होंने–
उपदेश दिया है, उसको जानकर जो मुनि धर्मको कष्टसहित बड़े यत्नसे पालता है, रक्षा
करता है वह उत्तमस्थान–मोक्ष को पाता है।
भावार्थः––वह मुनि का लिंग है वह बड़े पुण्य के उदय से प्राप्त होता है, उसे प्राप्त करके भी फिर खोटे कारण मिलाकर उसको बिगाड़ता है तो जानो कि यह बड़ा ही अभागा है––चिंतामणि रत्न पाकर कौड़ी के बदले में नष्ट करता है, इसीलिये आचार्य ने उपदेश दिया है कि ऐसा पद पाकर इसकी बड़े यत्न से रक्षा करना,–––कुसंगति करके बिगाड़ेगा तो जैसे पहिले संसार–भ्रमण था वैसे ही फिर संसार में अनन्त काल भ्रमण होगा और यत्नपूर्वक मुनित्वका पालन करेगा तो शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेगा, इसलिये जिसको मोक्ष चाहिये वह मुनिधर्म को प्राप्त करके यत्न सहित पालन करो, परिषह का, उपसर्गका उपद्रव आवे तो भी चलायमान मत होओ, यह श्री सर्वज्ञदेव का उपदेश है।। २२।।
इसप्रकार यह लिंगपाहुड ग्रंथ पूर्ण किया। इसका संक्षेप इस प्रकार है कि–––इस पंचमकाल में जिनलिंग धारण करके फिर दुर्भिक्ष के निमित्त से भ्रष्ट हुए, भेष बिगाड़ दिया वे अर्द्धफालक कहलाये, इनमें से फिर श्वेताम्बर हुए, इनमें से भी यापनीय हुए, इत्यादि होकर के शिथिलाचार को पुष्ट करके के शास्त्र रचकर स्वच्छंद हो गये, इनमें से कितने ही निपट– बिल्कुल निंद्य प्रवृत्ति करने लगे, इनका निषेध करने के लिये तथा सबको सत्य उपदेश देनेके लिये यह ग्रंथ है, इसको समझकर श्रद्धान करना। इसप्रकार निंद्य आचरणवालों को साधु– मोक्षमार्गी न मानना, इनकी वंदना व पूजा न करना यह उपदेश है। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––