३६४] [अष्टपाहुड रागरूप आत्माका भाव, उत्पल अर्थात् दूर करनेमें, कोमल अर्थात् कठोरतादि दोष रहित और सम अर्थात् रागद्वेष रहित, पाद अर्थात् जिनके वाणी के पद हैं, जिनके वचन कोमल हितमित मधुर राग–द्वेष रहित प्रवर्तते हैं उनसे सबका कल्याण होता है। भावार्थः––इसप्रकार वर्द्धमान स्वामी को नमस्काररूप मंगल करके आचार्य ने शीलपाहुड ग्रन्थ करने की प्रतीज्ञा की है।। १।। आगे शील का रूप तथा इससे (ज्ञान) गुण होता है वह कहते हैंः–––
णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति।। २।।
केवलं च शीलेन विना विषयाः ज्ञानं विनाशयंति।। २।।
अर्थः––शील के और ज्ञान के ज्ञानियोंने विरोध नहीं कहा है। ऐसा नहीं है कि जहाँ
शील हो वहाँ ज्ञान न हो और ज्ञान हो वहाँ शील न हो। यहाँ णवरि अर्थात् विशेष है वह
कहते हैं–––शीलके बिना विषय अर्थात् इन्द्रियोंके विषय हैं यह ज्ञान को नष्ट करते हैं–––
ज्ञान को मिथ्यात्व रागद्वेषमय अज्ञानरूप करते हैं।
यहाँ ऐसा जानना कि–––शील नाम स्वभावका – प्रकृति का प्रसिद्ध है, आत्मा का
प्रवृत्ति से] मिथ्यात्व रागद्वेषरूप परिणाम होता है इसलिये यह ज्ञान की प्रवृत्ति कुशील नाम को
प्राप्त करती है इससे संसार बनता है, इसलिये इसको संसार प्रकृति कहते हैं, इस प्रकृति को
अज्ञानरूप कहते हैं, इस कुशील प्रकृति से संसार पर्याय में अपनत्व मानता है तथा परद्रव्यों में
इष्ट–अनिष्ट बुद्धि करता है।
यह प्रकृति पलटे तब मिथ्यात्व अभाव कहा जाय, तब फिर न संसार–पर्यायमें अपनत्व मानता है, न परद्रव्योंमें इष्ट–अनिष्टबुद्धि होती है और (पद अनुसार अर्थात्) इस भाव की पूर्णता न हो तब तक चारित्रमोह के उदय से (–उदय में युक्त होनेसे) ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––