३६६] [अष्टपाहुड
दुष्कर जणावुं ज्ञाननुं, पछी भावना दुष्कर अरे!
१दुक्खे णज्जदि णाणं णाणं णाऊण भावणा दुक्खं।
भावियमई व जीवो दिसयेसु विरज्जए दुक्खं।। ३।।
२दुःखेनेयते ज्ञानं ज्ञानं ज्ञात्वा भावना दुःखम्।
भावितमतिश्च जीवः विषयेषु विरज्यति दुक्खम्।। ३।।
अर्थः––प्रथम तो ज्ञान ही दुःख से प्राप्त होता है, कदाचित् ज्ञान भी प्राप्त करे तो
उसको जानकर उसकी भावना करना, बारंबार अनुभव करना दुःख से [–दृढ़तर सम्यक्
पुरुषार्थ से] होता है और कदाचित् ज्ञानकी भावना सहित भी जीव हो जावे तो विषयों को
दुःख से त्यागता है।
भावार्थः––ज्ञान की प्राप्ति करना, फिर उसकी भावना करना, फिर विषयों का त्याग
करना ये, उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं और विषयों का त्याग किये बिना प्रकृति पलटी नहीं जाती है,
इसलिये पहिले ऐसा कहा है कि विषय ज्ञान को बिगाड़ते हैं अतः विषयों का त्यागना ही
सुशील है।। ३।।
आगे कहते हैं कि यह जीव जब तक विषयों में प्रवर्तता है तब तक ज्ञान को नहीं
जानता है और ज्ञानको जाने बिना विषयों से विरक्त हो तो कर्मों का क्षय नहीं करता हैः–––
ताव ण जाणदि णाणं विसयबलो जाव वट्टए जीवो।
विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कम्मं।। ४।।
तावत् न जानाति ज्ञानं विषयबलः यावत् वर्त्तते जीवः।
विषये विरक्त मात्रः न क्षिपते पुरातनं कर्म।। ४।।
अर्थः–– जब तक यह जीव विषयबल अर्थात् विषयों के वशीभूत रहता है तब तक ज्ञान
को नहीं जानता है और ज्ञान को जाने बिना केवल विषयों में विरक्तिमात्र ही
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१ पाठान्तरः ––दुःखे णज्जदि। २ पाठान्तरः ––दुःखेन ज्ञायते।
वळी भावनायुत जीवने दुष्कर विषयवैराग्य छे। ३।
जाणे न आत्मा ज्ञानने, वर्ते विषयवश ज्यां लगी;
नहि क्षपण पूरव कर्मनुं केवळ विषयवैराग्यथी। ४।