सुदपारयपउरा णं दुस्सीला अप्पिला लोए।। १७।।
श्रुतपारग प्रचुराः णं दुःशीला अल्पकाः लोके।। १७।।
हैं उनका देव भी वल्लभ होता है, उनकी सेवा करने वाले सहायक होते हैं। जो श्रुतपारग
अर्थात् शास्त्र के पार पहुँचे हैं, ग्यारह अंग तक पढ़े हैं ऐसे बहुत हैं और उनमें कई शीलगुण
से रहित हैं, दुःशील हैं, विषय–कषायों में असक्त हैं तो वे लोक में ‘अल्पका’ अर्थात् न्यून हैं,
वे मनुष्यों के भी प्रिय नहीं होते हैं तब देव कहाँ से सहायक हों?
थोड़ा भी हो तो उसके उपकारी सहायक देव भी होते हैं तब मनुष्य तो सहायक होते ही हैं।
शील गुणवाला सबका प्यारा होता है।। १७।।
सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसिं।। १८।।
शीलं येषु सुशीलं सुजीविदं मानुष्यं तेषाम्।। १८।।
अर्थः––जो सब प्राणियों में हीन है, कुलादिक से न्यून है और रूप से विरूप है सुन्दर
नहीं है, ‘पतितसुवयसः’ अर्थात् अवस्था से सुन्दर नहीं है, वृद्ध हो गये हैं,
लोके कुशील जनो, भले श्रुतपारगत हो, तुच्छ छे। १७।
सौथी भले हो हीन, रूपविरूप, यौवनभ्रष्ट हो,