३७८] [अष्टपाहुड
देवेय दुर्भगता लहे विषयावलंबी आतमा। २३।
के विष हो नष्ट होते हैं वैसे ही स्थावर विष मोहरा, सोमल आदिक और जंगम का विष सर्प,
घोहरा आदिक का–––इन विषों से भी प्राणी मारे जाते हैं, परंतु सब विषों में विषयों का विष
अति ही तीव्र है।। २१।।
आगे इसी का समर्थन करने के लिये विषयों के विषका तीव्रपना कहते हैं कि––विषकी
वेदना से तो एकबार मरता है और विषयों से संसार में भ्रमण करता हैः–––
वारि एक्कम्मि य जम्मे मरिज्ज विसवेयणाहदो जीवो।
विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकंतारे।। २२।।
वारे एकस्मिन् जन्मनि गच्छेत् विषवेदनाहतः जीवः।
विषयविषपरिहता भ्रमंति संसारकांतारे।। २२।।
अर्थः––विष की वेदना से नष्ट जीव तो एक जन्म में ही मरता है परन्तु विषयरूप
विषसे नष्ट जीव अतिशयतया – बारबार संसाररूपी वन में भ्रमण करते हैं। (पुण्य की और
राग की रुचि वही विषय बुद्धि है।)
भावार्थः––अन्य सपारदिक के विषसे विष्यों का विष प्रबल है, इनकी आसक्ति से ऐसा
कर्मबंध होता है कि उससे बहुत जन्म–मरण होते हैं।। २२।।
आगे कहते हैं कि विषयों की आसक्ति से चतुर्गति में दुःख ही पाते हैंः–––
णरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणवेसु दुक्खाइं।
देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासिया जीवा।। २३।।
नरकेषु वेदनाः तिर्यक्षु मानुषेषु दुःखानि।
देवेषु अपि दौर्भाग्यं लभंते विषयासक्ता जीवाः।। २३।।
अर्थः––विषयों में आसक्त जीव नरकमें अत्यंत वेदना पाते हैं, तिर्यंचों में तथा
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विषवेदनाहत जीव एक ज वार पामे मरणने,
पण विषयविषहत जीव तो संसारकांतारे भमे। २२।
बहु वेदना नरको विषे, दुःखो मनुज–तिर्यंचमां,