देव होते हैं, इसप्रकार चारों गतियों में दुःख ही पाते हैं।
सेवन से आकुलता दुःख ही है, यह जीव भ्रम से सुख मानता है, सत्यार्थ ज्ञानी तो विरक्त ही
होता है।। २३।।
तवसीलमंत कुसली खवंति विसयं विस व खलं।। २४।।
तपः शीलमंतः कुशलाः क्षिपंते विषयं विषमिव खलं।। २४।।
अर्थः––जैसे तुषों के चलाने से, उड़ाने से मनुष्य का कुछ द्रव्य नहीं जाता है, वैसे ही
तपस्वी और शीलवान् पुरुष विषयोंको खलकी तरह क्षेपते हैं, दूर फेंक देते हैं।
हैं, वैसे ही विषयों को जानना। रस था वह तो ज्ञानियों ने जान लिया तब विषय तो खल के
समान रहे, उनके त्यागने में क्या हानि? अर्थात् कुछ भी नहीं है। उन ज्ञानियों को धन्य है जो
विषयों को ज्ञेयमात्र जानकर आसक्त नहीं होते हैं।
सूखी हड्डी चबाता है तब हड्डी की नोक मुखके तलवे में चुभती है, इससे तलवा फट जाता
है और उसमें से खून बहने लगता है, तब अज्ञानी श्वान जानता है कि यह रस हड्डी में से
निकला है और उस हड्डी को बार बार चबा कर सुख मानता है; वैसे ही अज्ञानी विषयों में
सुख मानकर बार बार भोगता है, परन्तु ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में ही सुख जाना है, उनको
विषयों के त्याग में दुःख नहीं है, ऐसे जानना।। २४।।