Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 25-26 (Sheel Pahud).

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३८०] [अष्टपाहुड

आगे कहते हैं कि कोई प्राणी शरीर के अवयव सुन्दर प्राप्त करता है तो भी सब अंगों में शील ही उत्तम हैः–––

वट्टेसु य खंडेसु य भद्देसु य विसाले सु अंगेसु।
अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं शीलं।। २५।।
वृत्तेषु च खंडेषु च भद्रेषु च विशालेषु अंगेषु।
अंगेषु च प्राप्तेषु च सर्वेषु च उत्तमं शीलं।। २५।।
अर्थः––प्राणी के देह में कई अंग तो वृत्त अर्थात् गोल सुघट प्रशंसा योग्य होते हैं, कई
अंग खंड़ अर्थात् अर्द्ध गोल सदृश प्रशंसा योग्य होते हैं, कई अंग भ्रद्र अर्थात् सरल सीधे
प्रशंसा योग्य होते हैं और कई अंग विशाल अर्थात् विस्तीर्ण चोड़े प्रशंसा योग्य होते हैं,
इसप्रकार सबही अंग यथास्थान शोभा पाते हुए भी अंगों में यह शील नामका अंग ही उत्तम
है, यह न हो तो सबही अंग शोभा नहीं पाते हैं, यह प्रसिद्ध है।

भावार्थः–– लोक में प्राणी सर्वांग सुन्दर हो परन्तु दुःशील हो तो सब लोक द्वारा निंदा
करने योग्य होता है, इसप्रकार लोकमें भी शील ही की शोभा है तो मोक्ष में भी शील ही को
प्रधान कहा है, जितने सम्यग्दर्शनादिक मोक्ष के अंग हैं वे शील ही के परिवार हैं ऐसा पहिले
कह आये हैं।। २५।।

आगे कहते हैं कि जो कुबुद्धि से मूढ़ हो गये हैं वे विषयों में आसक्त हैं कुशील हैं संसार में भ्रमण करते हैंः–––

पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहि विसयलोलेहिं।
संसारे भमिदव्यं अरयघरट्टं व भूदेहिं।। २६।।
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‘वट्टे’ पाठान्तर
छे भद्र, गोळ, विशाळ ने खंडात्म अंग शरीरमां,
ते सर्व होय सुप्राप्त तो पण शील उत्तम सर्वमां। २५।

दुर्मतविमोहित विषयलुब्ध जनो ईतरजन साथमां,
अरघट्टिकाना चक्र जेम परिभ्रमे संसारमां। २६।