अदृष्ट हो जाय, तब उस संधि को टाँके का झालने वाला ही पहिचान कर खोले, वैसे ही
आत्माने अपने ही रागादिक भावों से कर्मों की गाँठ बांधी है उसको आप ही भेदविज्ञान करके
रागादिकके और आपके जो भेद हैं उस संधि को पहिचान कर तप संयम शीलरूप भावरूप
शस्त्रों के द्वारा कर्म बंध को काटता है, ऐसा जानकर जो कृतार्थ पुरुष है वे अपने प्रयोजन के
करनेवाले हैं, वे इस शीलगुणको अंगीकार करके आत्मा को कर्म से भिन्न करते हैं, यह
परुषार्थ पुरुषों का कार्य है।। २७।।
आत्मा तप विनय शीलवान इन रत्नोंमें शीलसहित शोभा पाता है, क्योंकि जो शील सहित
हुआ उसने अनुत्तर अर्थात् जिससे आगे और नहीं है ऐसे निर्वाणपद को प्राप्त किया।
सोहेंतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो।। २८।।
शोभते च सशीलः निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः।। २८।।
जानना।। २८।।
जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं।। २९।।
सोहंत जीव सशील पामे श्रेष्ठ शिवपदने अहो! २८।
देखाय छे शुं मोक्ष स्त्री–पशु–गाय–गर्दभ–श्वाननो?