३८४] [अष्टपाहुड
अर्थः––जो शील के बिना ज्ञान ही से विसोह अर्थात् विशुद्धभाव पंडितों ने कहा हो तो
दश पूर्वको जानने वाला जो रुद्र उसका भाव निर्मल क्यों नहीं हुआ, इसलिये ज्ञात होता है
कि भाव निर्मल शील से होते हैं।
भावार्थः––कोरा ज्ञान तो ज्ञेय को ही बताता है इसलिये वह मिथ्यात्व कषाय होने पर
विपर्यय हो जाता है, अतः मिथ्यात्व कषाय का मिटना ही शील है, इसप्रकार शीलके बिना
ज्ञान ही से मोक्ष की सिद्धि होती नहीं, शील के बिना मुनि भी हो जाय तो भ्रष्ट हो जाता है।
इसलिये शील को प्रधान जानना।। ३१।।
दशपूर्वधरनो भाव केम थयो नहीं निर्मळ अरे? ३१।
आगे कहते हैं कि शील के बिना ज्ञान ही से भाव की शुद्धता नहीं होती हैः–––
जइ णाणेण विसोही सीलेण विणा बुहेहिं णिद्दिट्ठो।
दसपुव्वियरस भावो य ण किं पुणु णिम्मलो जादो।। ३१।।
यदि ज्ञानेन विशुद्धः शीलेन विना बुधैर्निर्दिष्टः।
दशपूर्विकस्य भावः च न किं पुनः निर्मलः जातः।। ३१।।
आगे कहते हैं कि यदि नरक में भी शील हो जाय और विषयों से विरक्त हो जाय तो
वहाँ से निकल कर तीर्थंकर पद को प्राप्त होता हैः–––
जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणा पउरा।
ता लेहदि अरुहपयं भणियंजिणवड्ढमाणेण।। ३२।।
यः विषयविरक्तः सः गमयति नरकवेदनाः प्रचुराः।
तत् लभते अर्हतादं भणितं जिनवर्द्धमानेव।। ३२।।
अर्थः––विषयों से विरक्त है सो जीव नरक की बहुत वेदना को भी गँचाता है––वहाँ
भी अति दुःखी नहीं होता और वहाँ से निकल कर तीर्थंकर होता है ऐसा जिन वर्द्धमान
भगवान् ने कहा है।
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जो शील विण बस ज्ञानथी कही होय शुद्धि ज्ञानीए,
विषये विरक्त करे सुसह अति–उग्र नारकवेदना,
ने पामता अर्हंतपदः– वीरे कह्युं जिनमार्गमां। ३२।