पप्फोडियकम्मरवा हवंति आराहणापयडा।। ३९।।
प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाप्रकटाः।। ३९।।
अर्थः––सर्वगुण जो मूलगुण उत्तरगुणों से जिसमें कर्म क्षीण हो गये हैं, सुख–दुःख से
रहित हैं, जिनमें मन विशुद्ध है और जिसमें कर्मरूप रज को उड़ा दी है ऐसी अराधना प्रगट
होती र्है।
उससे रहित होता है, पीछे ध्यान में स्थित होकर श्रेणी चढ़े तब उपयोग विशुद्ध हो, कषायों
का उदय अव्यक्त हो तब सुख–दुःख की वेदना मिटे, पीछे मन विशुद्ध होकर क्षयोपशम
ज्ञानके द्वारा कुछ ज्ञेय से ज्ञेयान्तर होनेका विकल्प होता है वह मिटकर एकत्ववितर्क अविचार
नामका शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान के अन्त में होता है यह मनका विकल्प मिटकर विशुद्ध
होना है।
आराधना प्रगट होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। अन्यके आराधना का एक देश होता है अंत में
उसका आराधन करके स्वर्ग प्राप्त होता है, वहाँ सागरो पर्यन्त सुख भोग वहाँ से चय कर
मनुष्य हो आराधन को संपूर्ण करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसप्रकार जानना, यह जिनवचन का
और शील का महात्म्य है।। ३९।।