सीलं विसयविरागो णाणं पुणकेरिसं भणियं।। ४०।।
शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीद्रशं भणितं।। ४०।।
अर्थः––अरहंतों में शुभ भक्ति का होना सम्यक्त्व है, वह कैसा है? सम्यग्दर्शन से
विशुद्ध है तत्त्वार्थों का निश्चय–व्यवहारस्वरूप श्रद्धान और बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगम्बररूप का
धारण तथा उसका श्रद्धान ऐसा दर्शन से विशुद्ध अतीचार रहित निर्मल है ऐसा तो अरहंत
भक्तिरूप सम्यक्त्व है, विषयों से विरक्त होना शील है और ज्ञान भी यही है तथा इससे भिन्न
ज्ञान कैसा कहा है? सम्यक्त्व शील बिना तो ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप अज्ञान है।
सहित हो, ऐसा जिन मार्ग में कहा है, इससे भिन्न ज्ञान कैसा है? इससे भिन्न ज्ञान को तो
हम ज्ञान नहीं कहते हैं, इनके बिना तो वह अज्ञान ही है और सम्यक्त्व व शील हो वह
जिनागम से होते हैं। वहाँ जिसके द्वारा सम्यक्त्व शील हुए और उसकी भक्ति न हो तो
सम्यक्त्व कैसे कहा जावे, जिके वचन द्वारा यह प्राप्त किया जाता है उसकी भक्ति हो तब
जाने कि इसके श्रद्धा हुई और जब सम्यक्त्व हो तब विषयों से विरक्त होय ही हो, यदि
विरक्त न हो तो संसार और मोक्ष का स्वरूप क्या जाना? इसप्रकार सम्यक्त्व शील के संबंध
से ज्ञान की तथा शास्त्र की महिमा है। ऐसे यह जिनागम है सो संसार में निवृत्ति करके मोक्ष
प्राप्त कराने वाला है, वह जयवंत हो। यह सम्यक्त्व सहित ज्ञान की महिमा है वही अंतमंगल
जानना।। ४०।।