Ashtprabhrut (Hindi).

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शीलपाहुड][३९१
इसका संक्षेप तो कहते आये कि–––शील नाम स्वभाव का है। आत्माका स्वभाव शुद्ध
ज्ञान दर्शमयी चेतनास्वरूप है वह अनादि कर्म के संयोग से विभावरूप परिणमता है। इसके
विशेष मिथ्यात्व, कषाय आदि अनेक हैं इनको रागद्वेष मोह भी कहते हैं, इनके भेद संक्षेप से
चौरासी लाख किये हैं, विस्तार से असंख्यात अनंत होते हैं इनको कुशील कहते हैं। इनके
अभावरूप संक्षेप से चौरासी लाख उत्तरगुण हैं, इन्हें शील कहते हैं, यह तो सामान्य परद्रव्य
के संबंध की अपेक्षा शील–कुशील का अर्थ है और प्रसिद्ध व्यवहार की अपेक्षा स्त्री के संग की
अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहें हैं, इनका अभाव शील के अठारह हजार भेद हैं,
इनको जिनागम से जानकर पालना। लोक में भी शील की महिमा प्रसिद्ध है, जो पालते हैं
स्वर्ग–मोक्ष के सुख पाते हैं, उनको हमारा नमस्कार है वे हमारे भी शील की प्राप्ति करो, यह
प्रार्थना है।
छप्पय
आन वस्तु के संग राचि जिनभाव भंग करि;
वरतै ताहि कुशीलभाव भाखे कुरंग धरि!
ताहि तजैं मुनिराय पाप निज शुद्धरूप जल;
धोय कर्मरज होय सिद्धि पावै सुख अविचल।।
यह निश्चय शील सुब्रह्ममय व्यवहारै तिय तज नमै।
जो पालै सबविधि तिनि नमूं पाउं जिन भव न जनम मैं।।
दोहा
नमूं पंचपद ब्रह्ममय मंगलरूप अनूप।
उत्तम शरण सदा लहूं फिरि न परूं भवकूप।। २।।
इति श्री कुन्दकुन्दाचार्यस्वामिप्रणीत शीलप्रभृत की जयपुर निवासी
पं० जयचन्द्रजी छाबड़ाकृत देशभाषामय वचनिका का
हिन्दी भाषानुवाद समाप्त।। ८।।