सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी प्राप्ति दुर्लभ होती है।
वे पर भव में लूले, मूक होते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय होते हैं, उनके पैर नहीं होते, वे परमार्थतः
लूले, मूक हैं; इसप्रकार एकेन्द्रिय–स्थावर होकर निगोद में वास करते हैं वहाँ अनंत काल
रहते हैं; उनके दर्शन–ज्ञान–चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ होती है; मिथ्यात्वका फल निगोद ही कहा
है। इस पंचमकाल में मिथ्यामत के आचार्य बनकर लोगोंसे विनयादिक पूजा चाहते हैं उनके
लिये मालूम होता है कि त्रसराशिक काल पूरा हुआ, अब एकेन्द्रिय होकर निगोद में वास
करेंगे–इसप्रकार जाना जाता है ।।१२।।
तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।। १३।।
तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्यमानानाम्।। १३।।
दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी प्राप्ति नहीं है, क्योंकि वे भी मिथ्यात्व जो कि पाप है उसका अनुमोदन
करते हैं। करना, कराना, अनुमोदन करना समान कहे गये हैं। यहाँ लज्जा तो इसप्रकार है
कि –हम किसी की विनय नहीं करेंगे तो लोग कहेंगे यह उद्धत है, मानी है, इसलिये हमें तो
सर्व का साधन करना है। इसप्रकार लज्जा से दर्शनभ्रष्टके भी विनयादिक करते हैं। तथा भय
इस प्रकार है कि––यह राज्यमान्य है और मंत्रविद्यादिक की सामर्थ्य युक्त है, इसकी विनय
नहीं करेंगे तो कुछ