२२][अष्टपाहुड हमारे ऊपर उपद्रव करेगा; इसप्रकार भय से विनय करते हैं। तथा गारव तनि प्रकार कहा है;–रसगारव, ऋद्धिगारव, सातागारव। वहाँ रसगारव तो ऐसा है कि –मिष्ट, इष्ट, पुष्ट भोजनादि मिलता रहे तब उससे प्रमादी रहता है; तथा ऋद्धिगारव ऐसा है कुछ तप के प्रभाव आदि से ऋद्धिकी प्राप्ति हो उसका गौरव आ जाता है, उससे उद्धत, प्रमादी रहता है। तथा सातागारव ऐसा कि शरीर निरोग हो, कुछ क्लेश का कारण न आये तब सुखीपना आ जाता है, उसमें मग्न रहते हैं –इत्यादिक गारवभाव की मस्ती से भले–बुरे का विचार नहीं करता तब दर्शनभ्रष्ट की भी विनय करने लग जाता है। इत्यादि निमित्तसे दर्शनभ्रष्ट की विनय करे तो उसमें मिथ्यात्वका अनुमोदन आता है; उसे भला जाने तो आप भी उसी समान हुआ, तब उसके बोधी कैसे कही जाये? ऐसा जानना ।।१३।।
णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणे होदि।। १४।।
ज्ञान करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति।। १४।।
अर्थः––जहाँ बाह्याभ्यांभेदसे दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग हो और मन–वचन–काय
ज्ञान हो, तथा निर्दोष जिसमें कृत, कारित, अनुमोदना अपनेको न लगे ऐसा, खडे़ रहकर
पाणिपात्र में आहार करें, इसप्रकार मूर्तिमंत दर्शन होता है।
भावार्थः––यहाँ दर्शन अर्थात् मत है; वहाँ बाह्य वेश शुद्ध दिखाई दे वह दर्शन; वही उसके अंतरंग भाव को बतलाता है। वहाँ बाह्य परिग्रह अर्थात् धन–धान्यादिक और अंतरंग परिग्रह मिथ्यात्व–कषायादि, वे जहाँ नहीं हों, यथाजात दिगम्बर मूर्ति हो, तथा इन्द्रिय–मन को वष में करना, त्रस–स्थावर जीवोंकी दया करना, ऐसे संयमका मन–वचन–काय द्वारा पालन हो और ज्ञान में विकार करना, कराना, अनुमोदन करना–ऐसे तीन कारणोंसे विकार न हो और निर्दोष पाणिपात्रमें खडे़ रहकर आहार लेना इस प्रकार दर्शन की मूर्ति है वह जिनदेव का मत है, वही वंदन–पूजन योग्य है। अन्य पाखंड वेश वंदना–पूजा योग्य नहीं है ।। १४।। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––