तब अभ्युदयरूप तीर्थंकरादि की पदवी प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है ।।१६।।
जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं।। १७।।
जरामरणव्याधिहरणंक्षयकरणं सर्वदुःखानाम्।। १७।।
अर्थः––यह जिनवचन हैं सो औषधि हैं। कैसी औषधि है? –कि इन्द्रिय विषयोंमें जो
सुख माना है उसका विरेचन अर्थात् दूर करने वाले हैं। तथा कैसे हैं? अमृतभूत अर्थात् अमृत
समान हैं और इसलिये जरामरण रूप रोगको हरनेवाले हैं, तथा सर्व दुःखोंका क्षय करने वाले
हैं।
विषयसुखोंसे अरुचि उत्पन्न करके उसका विरेचन करती है। जैसे –गरिष्ट आहार से जब मल
बढ़ता है तब ज्वरादि रोग उत्पन्न होते हैं और तब उसके विरेचन को हरड़ आदि औषधि
उपकारी होती है, उसीप्रकार उपकारी हैं। उन विषयोंसे वैराग्य होने पर कर्म बन्ध नहीं होता
और तब जन्म–जरा–मरण रोग नहीं होते तथा संसारके दुःख का अभाव होता है। इसप्रकार
जिनवचनोंको अमृत समान मानकर अंगीकार करना ।।१७।।