दर्शनपाहुड][२५
आगे, जिनवचनमें दर्शनका लिंग अर्थात् भेष कितने प्रकारका कहा है सो कहते हैंः–
एगं जिणस्स रुवं विदियं उक्किट्ठसावयाणं तु।
अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि।। १८।।
एकं जिनस्य रुपं द्वितीयं उत्कृष्ट श्रावकाणां तु।
अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थं पुनः लिंगदर्शनं नास्ति।। १८।।
अर्थः––दर्शनमें एक तो जिन का स्वरूप है; वहाँ जैसा लिंग जिनदेव ने धारण किया
वही लिंग है; तथा दूसरा उत्कृष्ट श्रावकोंका लिंग है और तीसरा ‘अवरस्थित’ अर्थात्
जघन्यपद में स्थित ऐसी आर्यिकाओं का लिंग है; तथा चौथा लिंग दर्शन में है नहीं।
भावार्थः––जिनमत में तीन लिंग अर्थात् भेष कहते हैं। एक तो वह है जो यथाजातरूप
जिनदेव ने धारण किया; तथा दूसरा ग्यारहवीं प्रतिमा के धारी उत्कृष्ट श्रावकका है, और
तीसरा स्त्री आर्यिका हो उसका है। इसके सिवा चौथा अन्य प्रकार का भेष जिनमत में नहीं है।
जो मानते हैं वे मूल संघ से बाहर हैं ।।१८।।
आगे कहते हैं कि –ऐसा बाह्यलिंग हो उसके अन्तरंग श्रद्धान भी ऐसा ही होता है और
वह सम्यग्दृष्टि हैः–
छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा।
सद्दहइ ताण रुवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो।। १९।।
षट् द्रव्याणि नव पदार्थाः पंचास्तिकायाः सप्ततत्त्वानि निर्दष्टिानि।
श्रद्दधाति तेषां रुपं सः सदृष्टिः ज्ञातव्यः।। १९।।
अर्थः––छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व–यह जिनवचन में कहें हैं,
उनके स्वरूपका जो श्रद्धान के उसे सम्यग्दृष्टि जानना।
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छे एक जिननुं रूप, बीजुं श्रावकोत्तम–लिंग छे,
त्रीजुं कह्युं आर्यादिनुं, चोथुं न कोई कहेल छे। १८।
पंचास्तिकाय, छ द्रअ ने नव अर्थ, तत्त्वो सात छे;
श्रद्धे स्वरूपो तेमनां जाणो सुदृष्टि तेहने। १९।