दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।। २६।।
द्वौ अपि भवतः समानौ एकः अपि न संयतः भवति।। २६।।
अर्थः––असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिये। भावसंयम नहीं हो और बाह्यमें वस्त्र
रहित हो वह भी वंदने योग्य नहीं है क्योंकि यह दोनों ही संयम रहित समान हैं, इनमें एक
भी संयमी नहीं है।
इसलिये यह दोनों ही असंयमी ही हैं। अतः दोनों ही वंदने योग्य नहीं हैं। यहाँ आशय ऐसा है,
अर्थात्, ऐसा नहीं जानना चाहिये कि –जो आचार्य यथाजातरूपको दर्शन कहते आये हैं वह
केवल नग्नरूप ही यथाजातरूप होगा, क्योंकि आचार्य तो बाह्य–अभ्यंतर सब परिग्रहसे रहित
हो उसको यथाजातरूप कहते हैं। अभ्यंतर भावसंयम बिना बाह्य नग्न होनेसे तो कुछ संयम
होता नहीं है ऐसा जानना। यहाँ कोई पूछे –बाह्य भेष शुद्ध हो, आचार निर्दोष पालन
करनेवाले को अभ्यंतर भावमें कपट हो उसका निश्चय कैसे हो, तथा सूक्ष्मभाव केवलीगम्य हैं,
मिथ्यात्व हो उसका निश्चय कैसे हो, निश्चय बिना वंदनेकी क्या रीति? उसका समाधान––
ऐसे कपटका जब तक निश्चय नहीं हो तब तक आचार शुद्ध देखकर वंदना करे उसमें दोष
नहीं है, और कपट का किसी कारण से निश्चय हो जाये तब वंदना नहीं करें, केवलीगम्य
मिथ्यात्वकी व्यवहारमें चर्चा नहीं है, छद्मस्थके ज्ञानगम्यकी चर्चा है। जो अपने ज्ञानका विषय
ही नहीं उसका बाध–निर्बाध करने का व्यवहार नहीं है। सर्वज्ञभगवानकी भी यही आज्ञा है।
व्यवहारी जीवको व्यवहारका ही शरण है ।।२६।।
आगे इस ही अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैंः––