दर्शनपाहुड][२९
सो संजमपडिवण्णो मिच्छादट्ठी हवइ एसो।। २४।।
सःसंयमप्रतिपन्नः मिथ्यादृष्टिः भवति एषः।। २४।।
अर्थः––जो सहजोत्पन्न यथाजातरूप को देखकर नहीं मानते हैं, उसका विनय सत्कार प्रीति नहीं करते हैं और मत्सर भाव करते हैं वे संयमप्रतिपन्न हैं, दीक्षा ग्रहण की है फिर भी प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टि हैं। भावार्थः––जो यथाजातरूप को देख कर मत्सर भावसे उसका विनय नहीं करते हैं तो ज्ञात होता है कि –इनके इस रूप की श्रद्धा–रुचि नहीं है। ऐसी श्रद्धा–रुचि बिना तो मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि–जो श्वेताम्बरादिक हुए वे दिगम्बर रूपके प्रति मत्सरभाव रखते हैं और उसका विनय नहीं करते हैं उनका निषेध है।।२४।। आगे इसी को दृढ़ करते हैंः––
जे गारव करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति।। २५।।
ये गौरवं कुर्वन्ति च सम्यक्त्त्वविवर्जिताः भवंति।। २५।।
अर्थः––देवोंसे वंदने योग्य शील सहित जिनेश्वर देवके यथाजातरूप को देखकर जो गोैरव करते हैं, विनयादिक नहीं करते हैं वे सम्यक्त्व से रहित हैं। भावार्थः––जिस यथाजातरूपको देखकर अणिमादिक ऋद्धियोंके धारक देव भी चरणोंमें गिरते हैं उसको देखकर मत्सरभावसे नमस्कार नहीं करते हैं उनके सम्यक्त्व कैसे? वे सम्यक्त्व से रहित ही हैं ।।२५।। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
संयम तणो धारक भले ते होय पण कुदृष्टि छे। २४।