२८][अष्टपाहुड निजरूपको उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु जब तक [चारित्रमें प्रबल दोष है तब तक] चारित्र मोह कर्मका उदय प्रबल होता है [और] तबतक चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती। जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेषका श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करनेवाले को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ।।२२।। अब आगे कहते हैं कि जो दर्शन–ज्ञान–चारित्र में स्थित हैं वे वंदन करने योग्य हैंः–
ऐ ते तु वन्दनीया ये गुणवादिनः गुणधराणाम्।। २३।।
अर्थः––दर्शन–ज्ञान–चारित्र, तप तथा विनय इनमें जो भले प्रकार स्थित है वे प्रशस्त हैं, सरागने योगय हैं अथवा भले प्रकार स्वस्थ हैं लीन हैं और गणधर आचार्य भी उनके गुणानुवाद करते हैं अतः वे वंदने योग्य हैं। दूसरे जो दर्शनादिक से भ्रष्ट हैं और गुणवानोंसे मत्सरभाव रखकर विनयरूप नहीं प्रवर्तते वे वंदने योग्य हैं ।।२३।। अब कहते हैं कि–जो यथाजातरूप को देखकर मत्सरभावसे वन्दना नहीं करते हैं वे मिथ्यादृष्टि ही हैंः– –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ पाठान्तर–णिच्कालसुपत्ता