दर्शनपाहुड][२७
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स।। २१।।
सारं गुणरत्नत्रये सोपानं प्रथमं मोक्षस्य।। २१।।
अर्थः––ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देवका कहा हुआ दर्शन है सो गुणोंमें और दर्शन– ज्ञान–चारित्र इन तीन रत्नोंमें सार है –उत्तम है और मोक्ष मन्दिर में चढ़नेके लिये पहली सीढ़ी है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि –हे भव्य जीवों! तुम इसको अंतरंग भाव से धारण करो, बाह्य क्रियादिक से धारण करना तो परमार्थ नहीं है, अंतरंग की रुचि से धारण करना मोक्षका कारण है ।। २१।। अब कहते हैं कि –जो श्रद्धान करता है उसीके सम्यक्त्व होता हैः–
केवलिजिनैः भणितं श्रद्धानस्य सम्यक्त्वम्।। २२।।
अर्थः––जो करने को समर्थ हो वह तो करे और जो करने को समर्थ न हो वह श्रद्धान करे क्योंकि केवली भगवानने श्रद्धान करनेवाले को सम्यक्त्व कहा है। भावाथर्ः–यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि –सम्यक्त्व होने के बादमें सब परद्रव्य–संसारको हेय जानते हैं। जिसको हेय जाने उसको छोड़ मुनि बनकर चारित्रका पालन करे तब सम्यक्त्वी माना जावे, इसके समाधानरूप यह गाथा है। जिसने सब परद्रव्यको हेय जानकर –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– नियमसार गाथा १५४
गुण रत्नत्रयमां सार ने जे प्रथम शिवसोपान छे। २१।
थई जे शके करवुं अने नव थई शके ते श्रद्धवुं;