Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 35 (Darshan Pahud).

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३६][अष्टपाहुड
विहरदि जाव जिणिंदो सहसद्रु सुलक्खणेहिं संजुत्तो।
चउतीस अइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया।। ३५।।
विहरति यावत् जिनेन्द्रः सहस्राष्ट लक्षणैः संयुक्तः।
चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता।। ३५।।

अर्थः––केवलज्ञान होने के बाद जिनेन्द्र जबतक इस लोक में आर्यखंडमें विहार करते हैं
तबतक उनकी यह प्रतिमा अर्थात् शरीर सहित प्रतिबिम्ब उसको ‘थावर’ प्रतिमा इस नाम से
कहते हैं। वे जिनेन्द्र कैसे हैं। एक हजार आठ लक्षणोंसे संयुक्त हैं। वहाँ श्री वृक्षको आदि
लेकर एकसौ आठ तो लक्षण होते हैं। तिल मुसको आदि लेकर नौ सौ व्यंजन होते हैं। चौंतीस
अतिशयोंमें दस तो जन्म से ही लिये हुए उत्पन्न होते हैंः––– १ निःस्वेदता, २ निर्मलता, ३
श्वेतरुधिरता, ४ समचतुरस्त्र संसथान, ५ वज्रवृष्खानाराच संहनन, ६ सुरूपता, ७ सुगंधता, ८
सुलक्षणता, ९ अतुलवीर्य, १० हितमित वचन–––ऐसे दस होते हैं। घातिया कर्मोंके क्षय होने
पर दस होते हैंः– १ शतयोजन सुभिक्षता, २ आकाशगमन, ३ प्राणिवधका अभाव, ४
कवलाहारका अभाव, ५ उपसगरका अभाव, ६ चतुर्मुखपना, ७ सर्वविद्या प्रभुत्व, ८ छाया
रहितत्व, ९ लोचन निस्पंदन रहितत्व, १० केश–नख वृद्धि रहितत्व ऐसे दस होते हैं। देवों
द्वारा किये हुए चौदह होते हैंः–––सकलार्द्धमागधी भाषा, २ सर्वजीव मैत्री भाव, ३
सर्वऋतुफलपुष्प प्रादुर्भाव, ४ दर्पणके समान पृथ्वी होना, ५ मंद सुगंध पवन का चलना, ६ सारे
संसार में आनन्दका होना, ७ भूमी कंटकादिक रहित होना, ८ देवों द्धारा गंधोदककी वर्षा
होना, ९ विहारके समय चरण कमलके नीचे देवों द्वारा सुवर्णमयी कमलोंकी रचना होना, १०
भूमि धान्यनिष्पत्ति सहित होना, ११ दिशा–ााकाश निर्मल होना, १२ देवोंका अह्वानन शब्द होना,
१३ धर्मचक्रा आगे चलना, १४ अष्ट मंगल द्रव्य होना–––ऐसे चौदह होते हैं। सब मिलकर
चौंतीस हो गये। आठ प्रातिहार्य होते हैं, उनके नामः–––१ अशोकवृक्ष २ पुष्पवृष्टि, ३
दिव्यध्वनी, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ छत्र, ७ भामंडल, ८ दुन्दुभिवादित्र ऐसे आठ होते हैं। ऐसे
अतिशय सहित अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य सहित––– तीर्थंकर
परमदेव जबतक जीवोंके सम्बोधन निमित्त विहार करते विराजते हैं तबतक स्थावर प्रतिमा
कहलाते हैं। ऐसे स्थावर प्रतिमा कहने से तीर्थंकर केवलज्ञान होने के बाद में अवस्थान बताया
है और धातुपाषाण की प्रतिमा बना कर स्थापित करते हैं वह इसीका व्यवहार है ।।३५।।
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चोत्रीस अतिशययुक्त, अष्ट सहस्र लक्षणधरपणे;
जिनचन्द्र विहरे ज्यां लगी, ते बिंब स्थावर उक्त छे। ३५।