वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता।। ३६।।
व्युत्सर्गत्यक्तदेहा निर्वाणमनुत्तंर प्राप्ताः।। ३६।।
अर्थः––जो बारह प्रकारके तप से संयुक्त होते हुए विधिके बलसे अपने कर्मको नष्टकर
‘वोसट्टचत्तदेहा’ अर्थात् जिन्होंने भिन्न कर छोड़ दिया है देह, ऐसे होकर वे अनुत्तर अर्थात्
जिससे आगे अन्य अवस्था नहीं है ऐसी निर्वाण अवस्था को प्राप्त होते हैं।
शरीरको छोड़कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि जब निर्वाण को प्राप्त होते
हैं तब लोक शिखर पर जाकर विराजते हैं, वहाँ गमन में एक समय लगता है, उस समय
जंगम प्रतिमा कहते हैं। ऐसे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसमें
सम्यग्दर्शन प्रधान है। इस पाहुडमें सम्यग्दर्शनके प्रधान पने का व्याख्यान किया है ।।३६।।