Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 2 Sutra: Pahud.

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४०] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार सूत्रका अर्थ आचार्योंकी परम्परासे प्रवर्तता है उसको
जानकर मोक्षमार्गको साधते हैं वे भव्य हैंः–
सुत्तम्मि जं सुदिट्ठ आइरियपरंपरेण मग्गेण।
णाऊण दुविह सुत्तं वट्टदि सिवमग्गे जो भव्वो।। २।।
सूत्रे यत् सुदृष्टं आचार्यपरंपरेण मार्गेण।
ज्ञात्वा द्विविधं सूत्रं वर्त्तते शिवमार्गे यः भव्यः।। २।।

अर्थः––सर्वज्ञभाषित सूत्रमें जो कुछ भले प्रकार कहा है उसको आचार्योंकी परम्परारूप
मार्गसे दो प्रकारके सूत्रको शब्दमय और अर्थमय जानकर मोक्षमार्गमें प्रवर्तता है वह भव्यजीव
है, मोक्ष पाने के योग्य है।

भावार्थः––यहाँ कोई कहे–अरहंत द्वारा भाषित और गणधर देवोंसे गूंथा हुआ सूत्र तो
द्वादशांग रूप है, वह तो इस काल में दिखता नहीं है, तब परमार्थरूप मोक्षमार्ग कैसे सधे।
इसका करने के लिये यह गाथा है–अरहंत भाषित, गणधर रचित सूत्र में जो उपदेश है
उसको आचार्योंकी परम्परासे जानते हैं, उसको शब्द और अर्थके द्वारा जानकर जो मोक्षमार्ग
को साधता है वह मोक्ष होने योग्य भव्य है। यहाँ फिर कोई पूछे कि–आचार्यों की परम्परा क्या
है? अन्य ग्रन्थोंमें आचार्यों की परम्परा निम्नप्रकारसे कही गई हैः–

श्री वर्धमान तीर्थंकर सर्वज्ञ देवके पीछे तीन केवलज्ञानी हुए–––१ गौतम, २ सुधर्म, ३
जम्बू। इनके पीछे पाँच श्रुतकेवली हुए; इनको द्वादशांग सूत्र का ज्ञान था, १ विष्णु, २
नंदिमित्र, ३ अपराजित, ४ गौवर्द्धन, ५ भद्रबाहु। इनके पीछे दस पूर्वके ज्ञाता ग्यारह हुएः १
विशाख, २ प्रौष्ठिल, ३ क्षत्रिय, ४ जयसेन, ५ नागसेन, ६ सिद्धार्थ, ७ धृतिषेण, ८ विजय, ९
बुद्धिल, १० गंगदेव, ११ धर्मसेन। इनके पीछे पाँच ग्यारह अंगों के धारक हुए; १ नक्षत्र, २
जयपाल, पांडु, ४ धर्वुवसेन, ५ कंस। इनके पीछे एक अंग के धारक चार हुए, १ सुभद्र, २
यशोभद्र, ३ भद्रबाहु, ४ लोहाचार्य। इनके पीछे एक अंगके पूर्णज्ञानी की तो व्युच्छित्ति
(अभाव)
हुई और अंगके एकदेश अर्थके ज्ञाता आचार्य हुए। इनमें से कुछ एक नाम ये हैं––अर्हद्बलि,
माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समंतभद्र, शिवकोटि,
पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचन्द्र इत्यादि।
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सूत्रे सुदर्शित जेह, ते सूरिगणपरंपर मार्गथी
जाणी द्विधा, शिवपंथ वर्ते जीव जे ते भव्य छे। २।