का विषय है और ज्ञान–दर्शनरूप अनित्य, अनेक, नास्तित्वरूप इत्यादि भेदरूप कहना
पर्यायार्थिक नयका विषय है। दोनों ही प्रकारकी प्रधानताका निषेधमात्र वचन–अगोचर कहना
निश्चय नयका विषय है। दोनों ही प्रकारको प्रधान करके कहना प्रमाण का विषय है इत्यादि।
स्वरूप स्याद्धाद है और नयोंके आश्रित कथन है। नयोंके परस्पर विरोधको स्याद्धाद दूर करता
है, इसके विरोधका तथा अविरोधका स्वरूप अच्छी तरह जानना। यथार्थ तो गुरु आम्नाय ही
से होता है, परन्तु गुरुका निमित्त इसकालमें विरल हो गया, इसलिये अपने ज्ञानका बल चले
तब तक विशेषरूप से समझते ही रहना, कुछ ज्ञानका लेश पाकर उद्धत नहीं होना, वर्तमान
कालमें अल्पज्ञानी बहुत हैं इसलिये उनसे कुछ अभ्यास करके उनमें महनत बनकर उद्धत
होनेपर मद आ जाता है तब ज्ञान थकित हो जाता है और विशेष समझने की अभिलाषा नहीं
रहती हे तब विपरीत होकर यद्वातद्वा– मनमाना कहने लग जाता है, उससे अन्य जीवोंका
श्रद्धान विपरीत हो जाता है, तब अपने अपराध का प्रसंग आता है, इसलिये शास्त्रको समुद्र
जानकर, अल्पज्ञरूप ही अपना भाव रखना जिससे विशेष समझने की अभिलाषा बनी रहे,
इससे ज्ञान की वृद्धि होती है।
करके यथाशक्ति आचरण करना। इस काल में गुरु सम्प्रदायके बिना महन्त नहीं बनना, जिन
आज्ञा का लोप नहीं करना। कोई कहते हैं–हम तो परीक्षा करके जिनमत को मानेंगे वे वृथा
बकते हैं–स्वल्प बुद्धि का परीक्षा करने के योग्य नहीं है। आज्ञा को प्रधान रखकरके बने
जितनी परीक्षा करने में दोष नहीं है, केवल परीक्षा ही को प्रधान रखने में जिनमत से च्युत हो
जाये तो बड़ा दोष आवे। इसलिये जिनकी अपने हित–अहित पर दृष्टि है वे तो इसप्रकार
जानो, और जिनको अल्पज्ञानियों में महंत बनकर अपने मान, लोभ, बड़ाई, विषय–कषाय पुष्ट
करने हों उनकी बात नहीं है, वे तो जैसे अपने विषय–कषाय पुष्ट होंगे वैसे ही करेंगे, उनको
मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं लगता है, विपरीत को किसका उपदेश? इसप्रकार जानना चाहिये
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